गेहूँ की खेती
भूमि एवं जलवायु : गेहूँ की खेती के लिए ठंडी जलवायु की आवश्यकता होती है, इसकी खेती के लिए अनुकूल तापमान बुवाई के समय 20-25 डिग्री सेंटीग्रेट उपयुक्त माना जाता है, गेहूँ की खेती मुख्यत सिंचाई पर आधारित होती है गेहूँ की खेती के लिए दोमट भूमि सर्वोत्तम मानी जाती है, लेकिन इसकी खेती बलुई दोमट,भारी दोमट, मटियार तथा मार एवं कावर भूमि में की जा सकती हैI साधनों की उपलब्धता के आधार पर हर तरह की भूमि में गेहूँ की खेती की जा सकती हैI
उन्नत किस्मे : गेहूँ की किस्मो का चुनाव भूमि एवं साधनों की दशा एवं स्थित के अनुसार किया जाता है।
उत्तर प्रदेश : असिंचित क्षेत्र के लिए के 2837, के 8962, के 9465, के 9644, एवं एच डी आर 77 सिंचित क्षेत्र समय पर बुवाई देवा, एच पी 1731, नरेन्द्र गेहूँ 1012, उजियार, HUW 468, यू पी 2382, DBW 17, HUW 510 पी बी डब्लू 443, पी बी डब्लू 343, एच् डी 2824, PBW 502. सिंचित क्षेत्र देरी से बुवाई के लिए DBW 14, HUW 234, HI 1563, HD 2643, के 9162, के 9533, एच् पी 1744, नरेन्द्र गेहूँ 1014 आदि
राजस्थान : सिंचित क्षेत्र समय पर बुवाई PBW 343, राज 1482, राज 3077, राज 4037, PBW 502, PBW 550, सिंचित क्षेत्र देरी से बुवाई राज 3777, राज 3765, PBW 373 (कोटा और उदयपुर के लिए सिंचित क्षेत्र समय पर बुवाई MP 3288, राज 4120, HI 8713, HI 8663, राज 4238, GW 322, राज 1544)
मध्यप्रदेश : अर्ध सिंचित क्षेत्र JW 3269, JW 3288, HI 1500, HI 1531, HD 4672 (कठिया), सिंचित क्षेत्र समय पर बुवाई JW 1201, GW 322, GW 273, HI 1544, HI 8498 (कठिया), MOP 1215, सिंचित क्षेत्र देरी से बुवाई JW 1203, MP 4010, HD 2864, HI 1454.
खेत की तैयारी : गेहूँ की बुवाई अधिकतर धान की फसल के बाद ही की जाती है, पहली जुताई मिटटी पलटने वाले हल से तथा बाद में डिस्क हैरो या कल्टीवेटर से 2-3 जुताईयां करके खेत को समतल करते हुए भुरभुरा बना लेना चाहिए, डिस्क हैरो से धान के ठूंठे कट कर छोटे छोटे टुकड़ों में हो जाते हैं इन्हे शीघ्र सडाने के लिए 20-25 कि०ग्रा० यूरिया प्रति हैक्टर कि दर से पहली जुताई में अवश्य दे देनी चाहिएI इससे ठूंठे, जड़ें सड़ जाती हैं ट्रैक्टर चालित रोटावेटर से एक ही जुताई द्वारा खेत पूर्ण रूप से तैयार हो जाता हैI
बीजदर : गेहूँ कि बीजदर लाइन से बुवाई करने पर 100 कि०ग्रा० प्रति हैक्टर तथा मोटा दाना 125 कि०ग्रा० प्रति हैक्टर तथा छिडकाव से बुवाई कि दशा से 125 कि०ग्रा० सामान्य तथा मोटा दाना 150 कि०ग्रा० प्रति हैक्टर कि दर से प्रयोग करते हैं।
बीज उपचार : बुवाई के पहले बीज उपचार अवश्य करना चाहिए इसके लिए बुवाई से पूर्व कार्बोक्सिन 75% WP या कार्बेन्डाजिम 50% WP 2.5 से 3. 0 ग्राम दवा प्रति किलोग्राम बीज के लिए पर्याप्त होती है । टेबुकोनोजाल 1 ग्राम प्रति किलो बीज से उरापचारित करने पर कण्डवा रोग से बचाव होता है । पी एस बी कल्चर 5 ग्राम प्रति किलो बीज से उपचारित करने पर फास्फोरस की उपलब्धता बढ़ती है ।
बुवाई की विधि : गेहूँ की बुवाई समय से एवं पर्याप्त नमी पर करनी चाहिए अंन्यथा उपज में कमी हो जाती हैI जैसे-जैसे बुवाई में बिलम्ब होता है वैसे-वैसे पैदावार में गिरावट आती जाती है, गेहूँ की बुवाई सीड ड्रिल से करनी चाहिए तथा गेहूँ की बुवाई हमेशा लाइन में करें I कतार से कतार की दूरी 9 इंच रखें। फर्टी सीडड्रिल से भूमि में उचित नमी पर बुवाई करना लाभदायक है।
बुवाई का समय : असिंचित/ अर्ध सिंचित प्रजातियों की बुवाई अक्तूबर के प्रथम पक्ष से द्वितीय पक्ष तक उपयुक्त नमी में बुवाई करनी चाहिए। सिंचित दशा मे समय से अर्थात 15-25 नवम्बर तक उचित नमी में बुवाई करनी चाहिए और सिंचित दशा में जो देर से बुवाई 15-25 दिसम्बर तक उचित नमी में बुवाई करनी चाहिए।
खाद एवं उर्वरक : उर्वरकों का प्रयोग मृदा परीक्षण के आधार पर करना चाहिए, गेहूँ की अच्छी उपज के लिए खरीफ की फसल के बाद भूमि में 120 किलोग्राम नाइट्रोजन, 60 किलोग्राम फास्फोरस तथा 40 किलोग्राम पोटाश प्रति हैक्टर तथा देर से बुवाई करने पर 80-90 किलोग्राम नाइट्रोजन, 40 किलोग्राम फास्फोरस, तथा 20 -25 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर प्रयोग करना चाहिएI गोबर की खाद 10 टन प्रति हेक्टेयर का प्रयोग उपलब्ध होने पर अवश्य करना चाहिए। गोबर की खाद एवं आधी नाइट्रोजन तथा फॉस्फोरस और पोटाश की पूरी मात्रा खेत की तैयारी के समय आखिरी जुताई में या बुवाई के समय प्रयोग करना चाहिए, शेष नाईट्रोजन की आधी मात्रा पहली सिंचाई पर तथा बची शेष मात्रा दूसरी सिंचाई पर प्रयोग करनी चाहिए I
सिंचाई : सामान्यतः गेहूँ की अच्छी उपज प्राप्त करने के लिए 6 सिचाईयां की आवश्यकता पड़ती है ये निम्न अवस्थाओ में करनी चाहिए, पहली क्राउन रूट अवस्था में बुवाई के 20-25 दिन बाद, दूसरी टिलरिंग या कल्ले निकलते समय बुवाई के 40-45 दिन बाद, तीसरी सिंचाई गांठे बनते समय बुवाई के 60-65 दिन बाद, तथा चौथी सिंचाई फ्लावरिंग स्टेज या पुष्पावस्था बुवाई के 80-85 दिन बाद एवं पाचवी सिंचाई मिल्किंग स्टेज या दुग्धावस्था बुवाई के 100-110 दिन बाद, आखिरी सिंचाई यानि छठी दाना भरते समय बुवाई के 115-120 दिन बाद सिंचाई करनी चाहिए I
खरपतवार नियंत्रण : गेहूँ की फसल में रबी के सभी खरपतवार जैसे बथुआ, प्याजी, खरतुआ, हिरनखुरी, चटरी, मटरी, सैंजी, अंकरा, कृष्णनील, गेहुंसा, तथा जंगली जई,आदि खरपतवार लगते हैंI इनकी रोकथाम निराई- गुड़ाई करके की जा सकती है। रासायनिक खरपतवार नियंत्रण के लिए पेंडामेथेलिन 30 ई सी की 3.3 लीटर मात्रा 800-1000 लीटर पानी में मिलकर फ़्लैटफैन नोजिल से प्रति हैक्टर की दर से छिडकाव बुवाई के बाद 1-2 दिन में करना चाहिएI कड़ी फसल में चौड़ी पत्ती वाले खरपतवारो को नष्ट करने के लिए बुवाई के 30-35 दिन बाद एवं पहली सिंचाई के एक सप्ताह बाद 2,4,डी सोडियम साल्ट 80% डब्लू. पी. की मात्रा 625 ग्राम 600-800 लीटर पानी में मिलकर 35-40 दिन बाद बुवाई के फ़्लैटफैन नोजिल से छिडकाव करना चाहिएI
कीट नियंत्रण :
दीमक : नियंत्रण के लिए फसल अवशेष नष्ट करें। गोबर की बिना पकी खाद का प्रयोग नहीं करें। खड़ी फसल में क्लोरोपायरीफॉस 20 ई सी 4 लीटर प्रति हेक्टेयर सिंचाई के साथ प्रयोग करें।
माहू : ये पत्तियों तथा बालियों का रस चूसते हैं, ये पंखहीन तथा पंखयुक्त हरे रंग के होते हैं। आवश्यकता अनुसार नियंत्रित करें।
सैन्य कीट : इसकी पूर्ण विकसित सुंडी लगभग 40 मिलीमीटर लम्बी बादामी रंग की होती हैI यह पत्तियों को खाकर हानि पहुंचाती है। क्यूनालफास 25 ई. सी. की 2.5 मिलीलीटर मात्रा प्रति लीटर पानी में घोलकर छिडकाव करना चाहिए।
गुलाबी तना बेधक : इस कीट की अण्डो से निकलने वाली सुंडी भूरे गुलाबी रंग की लगभग 5 मिली मीटर की लम्बी होती है, इसके काटने से फल की वानस्पतिक बढ़वार रुक जाती है नियंत्रण के लिए कीटनाशी जैसे क्यूनालफास 25 ई. सी. की 2.5 मिलीलीटर मात्रा प्रति लीटर पानी में घोलकर छिडकाव करना चाहिए।
रोग नियंत्रण :
गेरुआ (काला, पीला, भूरा) : प्रमुख रोग है नियंत्रण के लिए प्रापिकोनाजोल 25 % ई. सी. की एक मिलीलीटर प्रति लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करें।
कंडवा : कार्बोक्सिन से बीज को उपचारित करके बोयें।
झुलसा : मैन्कोजेब 2.5 ग्राम प्रति लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करें।
करनाल बट : प्रापिकोनाजोल 25 % ई. सी. की एक मिलीलीटर प्रति लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करें।
नोट : जिंक, मेंगनीज और सल्फर की कमी वाले क्षेत्रो में इनका उपयोग करने से उपज बढ़ेगी। स्थानीय अनुशंषाओं का पालन करें।