ज्वार की खेती
भारत में ज्वार एक महत्वपूर्ण खाद्यान्न फसल होने के साथ साथ शुष्क एवं अर्द्ध शुष्क क्षेत्र के किसानो की आय का एक महत्वपूर्ण स्रोत भी है | विश्व में जहाँ खाद्यान्न फसलो में इसका स्थान पांचवा है वही भारत में चावल एवं गेहूं के बाद यह तीसरे स्थान पर आती है | भारत में ज्वार की खेती 6.25 मि. हेक्टेयर i क्षेत्र में की जाती है तथा 0.957 टन/ हेक्टेयर औसत उत्पादकता के साथ 5.98 मि. टन उत्पादन होता है | देश का 80% से ज्यादा ज्वार का उत्पादन मुख्यरूप से महाराष्ट्र (54%), कर्नाटक (18%), राजस्थान (8%), मध्यप्रदेश (6%) तथा आन्ध्रप्रदेश (4%) राज्य करते है | इसके अलावा तमिलनाडु, गुजरात, उतरप्रदेश, उतराखंड एवं हरियाणा में भी ज्वार की खेती मुख्यरूप से चारे एवं दाने के लिए की जाती है | ज्वार की अत्यधिक मांग होने के बावजूद यह देखा जा रहा है कि इसके पौष्टिक गुणों के बारे में शहरी लोगों में जागरूकता की कमी, इसके उत्पादों के टिकने की कम अवधि, सरकार की प्रतिकूल नीतियों के कारण पिछले चार दशकों में इसका क्षेत्र एवं उत्पादन 1969-70 में 18.59 मि. हेक्टेयर तथा 9.86 मि. टन से गिरकर 2011-12 में 6.25 मि. हेक्टेयर तथा 5.98 मि. टन रह गया है | लेकिन प्रति हेक्टर उत्पादन जहां 1969-70 में 554 किलोग्राम होता था वही आज 9.57 किलोग्राम होता है | इसका मुख्य कारण अच्छी पैदावार देने वाली किस्मो का विकास एवं किसानो द्वारा वैज्ञानिक तरीके से खेती करना रहा है | परन्तु फिर भी अन्य देशों की तुलना में हमारे यहा कि औसत उत्पादन क्षमता काफी कम है | लगातार जनसंख्या का दबाव बदने से खेती योग्य जमीन की कमी होती जा रही है इसलिए हमें हमारी उत्पादन क्षमता बढ़ानी होगी! ज्वार की उन्नत किस्मो का विकास होने के बाद भी किसान जानकारी के अभाव में उन्नत किस्मो का पूरी तरह उपयोग नहीं करके स्थानिक किस्मों का उपयोग करते है जिससे खर्चा करने के बाद भी किसानो को पूरा मुनाफा नहीं मिलता है | किसान अगर संस्तुत क्षेत्रx के हिसाब से उचित किस्म का चयन करे तथा वैज्ञानिक तरीके से इसकी खेती करे तो वह अधिक उत्पादन लेने के साथ साथ अपनी आर्थिक स्थिति भी सुधार सकते है |
भूमि एवं खेत की तैयारी : ज्वार की खेती वैसे तो सभी प्रकार की भूमि में की जा सकती है परन्तु अच्छे जल निकास वाली दोमट मिट्टी इसकी खेती के लिय उत्तम है | गर्मी के मौसम में एक 10-15 से.मी. गहरी जुताई करने के बाद 2-3 जुताई कल्टीवेटर से करके जमीन को भुरभुरी बनाये तथा इसके बाद जमीन को समतल करे अंतिम जुताई से पहले खेत में 8-10 टन गोबर की सड़ी हुई खाद अच्छी तरह मिलादें |
बुआई : खरीफ ज्वार की बुआई मानसून आने के साथ करें | जून का आखरी सप्ताह अथवा जुलाई का पहला सप्ताह खरीफ ज्वार की बुआई का सही समय है | देरी से बुआई करने से ज्वार में प्ररोह मक्खी का प्रकोप बढ़ जाता है | रबी में ज्वार की बुआई जमीन में नमी के आधार पर करे | जल्दी बुआई करने से प्ररोह मक्खी का प्रकोप बढ़ जाता है तथा देरी से बुआई करने पर जमीन में नमी की कमी से उत्पादन में कमी आती है! सितम्बर के दूसरा सप्ताह रबी ज्वार की बुआई का सही समय है | जमीन में अगर पर्याप्त मात्र में नमी होतो अक्टूबर के पहले सप्ताह तक इसकी बुआई कर सकते है |
बीज की मात्रा एवं पौधे की दूरी : खाद्यान्न ज्वार की बुआई करने एवं अधिक उत्पादन लेने के लिए प्रति हेक्टेयर पौधो की संख्या 1.80 लाख से 2.0 लाख रखें | इसके लिए पौधे से पौधे की दूरी 10 से 15 से.मी., कतार से कतार की दूरी 45 से.मी. एवं बीज की मात्रा 10 से 12 की. ग्रा. प्रति हेक्टेयर रखें|
किस्में: अच्छी पैदावार देने वाली ज्वार की उन्नत किस्मों का विवरण दिया गया है| अत: संस्तुत क्षेत्रx के हिसाब से उचित किस्म का चयन करें |
उन्नत किस्में: सी. एस. वी. 15, सी. एस. वी. 216 आर, सी. एस. वी. 17, सी. एस. वी. 18, सी. एस. वी. 22, सी. एस. वी. 23, सी. एस. वी. 26, सी. एस. वी. 27, सी. एस. वी. 28, सी. एस. वी. 29
संकर किस्मे : सी. एस. एच. 14, सी. एस. एच. 15 आर., सी. एस. एच. 16, सी. एस. एच. 17, सी. एस. एच. 18, सी. एस. एच. 19 आर., सी. एस. एच. 25, सी. एस. एच. 27, सी. एस. एच. 30
बीजोपचार : बीज का उपचार करके हानिकारक बीमारियों एवं कीड़ो का प्रकोप कम कर सकते है तथा प्रति हेक्टेयर पौधो की संख्या सही रखते हुए ज्यादा उत्पादन ले सकते है | इसके लिए बीज को इमिडाक्लोरोप्रिड (गोचो) 14 मी. ली. तथा बावस्टीन अथवा थायोमिथोकजाम 2 ग्राम प्रति किलो बीज की दर से उपचारित करके बुआई करें |
खाद एवं उर्वरक: अंतिम जुताई से पहले खेत में 8-10 टन गोबर की सड़ी हुई खाद अच्छी तरह मिलादें | अधिक उत्पादन लेने के लिए सही मात्रा में सही समय पर रासायनिक खाद का उपयोग करें जिससे फसल को सही मात्रा में आवश्यक तत्व मिल सके एवं उसकी बढवार हो सकें | ज्वार की फसल को 80 की. ग्रा. नत्रजन एवं 40 की. ग्रा. फास्फोरस प्रति हेक्टेयर की आवश्यकता होती है | फसल को नत्रजन की आधी मात्रा एवं फास्फोरस की पूरी मात्रा बुआई के समय देवें तथा बची हुई नत्रजन फसल 30 से 40 दिवस की होने पर यूरिया के रूप में देवें तथा देते समय ध्यान रखे की खेत में नमी अवश्य हो |
सिंचाई: खरीफ की फसल को पानी की आवश्यकता नहीं होती परन्तु लम्बे अन्तराल से बारिश हो तो आवश्यकता पड़ने पर फूल बनते समय एवं दाना बनते समय फसल को पानी अवश्य देना चाहिए | रबी की फसल में क्रिटिकल अवस्था में सिंचाई अवश्य करें| अगर पानी की व्यवस्था है तो फसल को 30-35 दिवस पर(बढ़वार के समय), 60 से 65 दिन पर(फूल निकलने से पहले), 70 से 75 दिन पर (फूल निकलते समय) एवं 90 से 95 दिन पर (दाने बनते समय) पानी अवश्य दे | अगर दो सिंचाई की व्यवस्था है तो फूल बनते समय एवं दाना बनते समय सिंचाई करे | अगर एक सिंचाई की व्यवस्था है तो फूल बनते समय सिंचाई अवश्य करे |
खरपतवार नियंत्रण एवं अन्त्तराशस्य: फसल को 30-35 दिवस की होने तक खरपतवार मुक्त रखें | फसल को खरपतवार मुक्त रखने के लिए बुआई के तुरंत बाद एवं अंकुरण से पहले एट्राजीन 0.75 की. ग्रा. प्रति हेक्टेयर सक्रिय तत्व की दर से छिडकाव करें | अगर फसल में अगिया का परकोप हो तो हाथ से उखाड़ कर उसका नाश करें | फसल में दो बार तीसरे एवं पांचवे सप्ताह में अन्त्तराशस्य क्रिया करें | जिससे फसल खरपतवार मुक्त रहेगी एवं उसकी बढवार अच्छी होगी |
कीट एवं रोग नियंत्रण :
कीट: ज्वार की फसल में मुख्य रूप से प्ररोह मक्खी, तना भेदक, सिट्टे की मक्खी (मीज) एवं टिड्डा का प्रकोप होता है | अत: इनका नियंत्रण करके हम ज्वार का उत्पादन बढ़ा सकते है |
- प्ररोह मक्खी:यह ज्वार का अत्यंत घातक शत्रु है जो फसल की शुरुआती अवस्था में बहुत हानि पहुंचाता है | जब फसल 30 दिन की होती है तब तक इस कीट से फसल को 80 % तक हानि हो जाती है | यह कीट रबी एवं खरीफ दोनों मौसम में हानि पहुंचाता है | इस कीट की वयस्क मक्खी गहरे भूरे रंग की होती है जो पत्तियों के निचली सतह एवं कोमल तनों पर सफेद रंग के नली के आकर के अंडे देती देती है 2-3 दिनों में अंडो से इल्ली निकलकर मध्य प्ररोह को हानि पहुंचाती है जिससे प्ररोह का अग्र शीर्ष नष्ट होकर म्रृतकेंद्र का निर्माण करता है | यह बादलों से आच्छादित मौसम में तेजी से बढ़ती है तथा देरी से बोई गई फसल में बहुत हानि पहुंचाती है | इसके नियंत्रण के लिए रोग प्रतिकारक किस्मों की बुआई करनी करें तथा बीज को इमिडाक्लोरोप्रिड (गोचो) 14 मी. ली. प्रति किलो बीज की दर से उपचारित करके बुआई करनी करें | बीज की मात्रा 10 से 12 प्रतिशत ज्यादा रखनी चाहिए तथा जरुरी होतो अंकुरण के 10 से 12 दिन बाद इमिडाक्लोरोप्रिड (200 एस. एल.) 5 मी. ली. प्रति 10 लीटर पानी में घोल बना कर छिड़काव करना चाहिए | फसल काटने के बाद खेत में गहरी जुताई करें तथा फसल के अवशेषों को एकत्रित करके जला देना चाहिए |
- तना भेदक कीट:तना भेदक कीट का प्रकोप फसल में 10 से 15 दिन से शुरू होकर फसल के पकने तक रहता है! छोटी फसल में पौधो की गोभ सूख जाती है तथा बड़े पौधो में इसकी सुंडियां तने में सुराख़ बना कर फसल की पैदावार तथा गुणवत्ता को कम करती है | इसका प्रकोप फसल की गोभ से शुरू होता है तथा जैसे ही उपर की पत्तियां निकलती है उसमे एक कतार में 5 से 6 छिद्र देखने को मिलते है | इसके निएंत्रण के लिए फसल काटने के बाद खेत में गहरी जुताई करनी चाहिए तथा बचे हुए फसल के अवशेषों को एकत्रित करके जला देना चाहिए | खेत में बुआई के समय रसायेनिक खाद के साथ 10 की. ग्रा. की दर से फोरेट 10 जी अथवा कार्बोफ्युरोंन दवा खेत में अच्छी तरह मिला देवें तथा बुआई के 15 से 20 दिन बाद इमिडाक्लोरोप्रिड (200 एस. एल.) 5 मी. ली. प्रति 10 लीटर अथवा कार्बेरिल 50 प्रतिशत घुलनशील पाउडर 2ग्रा./ली. पानी में घोल बना कर 10 दिन के अन्तराल पर दो छिड़काव करना चाहिए |
- सिट्टे की मक्खी:यह सिट्टे निकलते समय फसल को हानि पहुंचाती है | इसकी रोकथाम के लिए जब 50 प्रतिशत सिट्टे निकल आएं तब प्रोपेनोफास 40 ई.सी. दवा 25 मी. ली. प्रति 10 लीटर पानी में घोल बना कर 10 से 15 दिन के अन्तराल पर दो छिड़काव करना चाहिए |
- टिड्डा:यह ज्वार की फसल को छोटी अवस्था से ले कर फसल पकने तक हानि पहुंचाता है तथा पत्तों के किनारों को खाकर धीरे धीरे पूरी पत्तियों को खा जाता है तथा बाद में फसल में मात्र मध्य शिरायें एवं पतला तना ही रह जाता है | इसके निएंत्रण के लिय फसल में कार्बेरिल 50 प्रतिशत घुलनशील पाउडर 2 ग्रा./ली. पानी में घोल बना कर 10 से 15 दिन के अन्तराल पर दो छिड़काव करना चाहिए |
रोग: ज्वार में मुख्य रूप से दाने की फफूंद (ग्रेनमोल्ड) एवं चारकोलरोट का प्रकोप होता है अत: इन रोगों की रोकथाम के लिए प्रमाणित बीजों का प्रयोग करें तथा 2 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से एग्रोसन जी. एन. या सिरेसन से उपचारित करके बुआई करें तथा नींचे उचित तरीके से इनका निएंत्रण करके करके हम ज्वार का उत्पादन बड़ा सकते है |
- दाने की फफूंद (ग्रेनमोल्ड):फूल आते समय तथा दाना बनते समय अगर बारिश होती है तो इस रोग का प्रकोप होता है तथा दाने काले एवं सफेद-गुलाबी रंग के होजाते है तथा उसकी गुणवत्ता कम हो जाती है | अत: अगर फसल में सिट्टे आने के बाद आसमान में बादल छाए तथा वातावरण में नमी ज्यादा हो तो मेन्कोजेब 75 % 2 ग्राम. अथवा कार्बेन्डाजिम दवा 0.5 ग्राम. प्रति लीटर पानी में घोल बना कर 10 दिन के अन्तराल पर 2 छिडकाव करे |
- चारकोल रॉट:इस रोग का प्रकोप मुख्य रूप से महाराष्ट्र एवं कर्नाटक के रबी ज्वार के सूखे क्षेत्रो में छिछली मृदा में होता है | इसका फैलाव जमीन द्वारा होता है | जमीन में नमी की कमी एवं वातावरण में अधिक गर्मी इस रोग के फैलाव के मुख्य कारण है | फसल के शुरुवाती अवस्था में पौधे मर जाते है | फसल का तना आसानी से टूट जाता है तथा अगर तने को चीर कर देखें तो अन्दर काले रंग का फफूंद दिखाई देता है | इस रोग की रोकथाम के लिए प्रतिरोधी किस्मों की बुआई करनी चाहिए तथा नाइट्रोजन खाद का प्रयोग आवश्येकता अनुसार कम से कम करना चाहिए एवं प्रति हेक्टेयर पौधो की संख्या कम रखनी चाहिए | जमीन को बुआई के समय थाईरम 4.5 की.ग्रा. प्रति हेक्टेयर की दर से उपचारित करना चाहिए |
पक्षियों से बचाव : ज्वार पक्षियों का मुख्य भोजन है अत: फसल में जब दाने बनने लगते है तो सुबह एवं शाम के समय इसमे पक्षियों से बहुत नुकसान होता है अत: पक्षियों से बचाव करना बहुत आवश्यक है अत: सुबह-शाम पक्षियों से रखवाली आवश्यक है |
फसल की कटाई : जब फसल सुख कर पिली भूरी होने लगे तथा दाने में 20 से 25 प्रतिशत नमी हो तो हंसिये की सहायता से कटाई कर लेनी चाहिए तथा 5-7 दिन धूप में सुखाने के बाद सिट्टो को हंसिये की सहायता काट कर थ्रेसर की मदद से दाना अलग कर लें तथा चारे को सूखने के बाद पूले बना कर एकत्रित कर लेना चाहिए |
डॉ एस. के. जैन