अलसी की खेती
जलवायु : अलसी की फसल को ठंडे व शुष्क जलवायु की आवश्यकता पड़ती है। अतः अलसी अधिकतर रबी मौसम में जहां वार्षिक वर्षा 45-50 सेंटीमीटर प्राप्त होती है वहां इसकी खेती सफलता पूर्वक की जा सकती है। अलसी के उचित अंकुरण के लिए 25-30 डिग्री से.ग्रे. तापमान तथा बीज बनते समय तापमान 15-20 डिग्री से.ग्रे. होना चाहिए। पकाते समय उच्च तापमान, कम नमी तथा शुष्क वातावरण की आवश्यकता होती है ।
भूमि : अलसी की फसल के लिये काली भारी एवं दोमट मिट्टियाॅ उपयुक्त होती है । अधिक उपजाऊ मृदाओं की अपेक्षा मध्यम उपजाऊ मृदायें अच्छी समझी जाती हैं। भूमि में उचित जल निकास का प्रबंध होना चाहिए । उचित जल एवं उर्वरक व्यवस्था से किसी भी प्रकार की मिट्टी में अलसी की खेती सफलता पूर्वक की जा सकती है।
खेत की तैयारी : अच्छे अंकुरण के लिये खेत भुरभुरा एवं खरपतवार रहित होना चाहिये । अतः खेत को 2-3 बार कल्टीवेटर चलाकर पाटा लगाना आवश्यक है।
उन्नत किस्मे : अच्छी उपज के लिए उन्नत किस्मो का प्रमाणित बीज प्रयोग करना चाहिए।
मध्यप्रदेश : जवाहर अलसी 23, सुयोग (सिंचित) और जवाहर अलसी 9, JLS 66, JLS 67, JLS 73 (असिंचित)
राजस्थान : शिखा, किरण, पद्मिनी, मीरा, RL 914, प्रताप अलसी - 1, प्रताप अलसी - 2
खाद एवं उर्वरक : अलसी को असिंचित अवस्था में नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटाश की क्रमशः 40 : 20 : 20 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर बुवाई के समय दी जानी चाहिए। सिंचित अवस्था में अलसी फसल को नाइट्रोजन, फास्फोरस व पोटाश की क्रमशः 60-80 : 40 : 20 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर देना चाहिये । नाइट्रोजन की आधी मात्रा तथा फास्फोरस व पोटाश की पूरी मात्रा बोनी से पहले तथा बची हुई नाईट्रोजन की मात्रा प्रथम सिंचाई के तुरंत बाद टाप ड्रेसिंग के रूप में देना चाहिये । अलसी एक तिलहन फसल है और तिलहन फसलों से अधिक उत्पादन लेने हेत 20-25 किलोग्राम गंधक भी देना चाहिए। इसके अलावा 20 किलोग्राम जिंक सल्फेट भी बोनी के समय देना चाहिए।
बुवाई का समय : असिंचित क्षेत्रो में अक्टूबर के प्रथम पखवाडे़ में तथा सिचिंत क्षेत्रो मे नवम्बर के प्रथम पखवाडे़ में बुवाई करना चाहिये। जल्दी बोनी करने पर अलसी की फसल को फली मक्खी एवं पाउडरी मिल्डयू आदि से बचाया जा सकता है ।
बीज दर : अलसी की बुवाई 25-30 किलोग्राम बीज दर प्रति हेक्टेयर की से करनी चाहिये। कतार से कतार के बीच की दूरी 30 सेमी तथा पौधे से पौधे की दूरी 5-7 सेमी रखनी चाहिये। बीज को भूमि में 2-3 सेमी की गहराई पर बोना चाहिये।
बीज उपचार : बुवाई से पूर्व बीज को कार्बेन्डाजिम की 2.5 से 3 ग्राम मात्रा प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करना चाहिये अथवा ट्राइकोडरमा विरीडी की 5 ग्राम मात्रा अथवा ट्राइकोडरमा हारजिएनम की 5 ग्राम एवं कार्बाक्सिन की 2 ग्राम मात्रा से प्रति किलोग्राम बीज को उपचारित कर बुवाई करनी चाहिये।
खरपतवार प्रबंधन : खरपतवार प्रबंधन के लिये बुवाई के 20 से 25 दिन पश्चात पहली निदाई-गुड़ाई एवं 40-45 दिन पश्चात दूसरी निदाई-गुड़ाई करनी चाहिये। रासायनिक विधि से खरपतवार प्रबंधन हेतु पेन्डामेथिलिन 30 ई सी 3.3 लीटर बुवाई के पश्चात एवं अंकुरण पूर्व 500-600 लीटर पानी में मिलाकर प्रति हेक्टेयर खेत में छिडकाव करें।
सिंचाई : अच्छे उत्पादन के लिए क्रांतिक अवस्थाओं पर 2 सिंचाई की आवश्यकता पड़ती है । यदि दो सिंचाई उपलब्ध हो तो प्रथम सिंचाई बुवाई के एक माह बाद एवं द्वितीय सिंचाई फूल आने से पहले करना चाहिये। प्रथम एवं द्वतीय सिचाई 30-35 व 60 से 65 दिन की फसल अवस्था पर करें ।
रोग नियंत्रण : अलसी में लगने वाले मुख्य रोग निम्न प्रकार है।
1. गेरुआ : यह रोग मेलेम्पसोरा लाइनाई नामक फफूंद से होता है। रोग का प्रकोप प्रारंभ होने पर चमकदार नारंगी रंग के धब्बे पत्तियों के दोनों ओर बनते है और धीरे धीरे यह पौधे के सभी भागों में फैल जाते है । रोग नियंत्रण के लिए रोगरोधी किस्में लगायें। रसायनिक दवा के रुप में टेबुकोनाज़ोल 2 प्रतिशत 2 मिलीलीटर प्रति लीटर या केप्टान 1 ग्राम प्रति लीटर पानी मे घोलकर छिड़काव करें।
2. विल्ट (उखटा) : यह अलसी का प्रमुख हांनिकारक मृदा जनित रोग है इस रोग का प्रकोप अंकुरण से लेकर पकने तक कभी भी हो सकता है। रोग ग्रस्त पौधो की पत्तियों के किनारे अन्दर की ओर मुड़कर मुरझा जाते हैं। रोगजनक मृदा में उपस्थित रहते है इसलिए बीज को उपचारित करें और ट्राइकोडर्मा से भूमि उपचार करें।
3. पाउडरी मिल्ड्यू : इस रोग के संक्रमण की दशा में पत्तियों पर सफेद चूर्ण सा जम जाता है। रोग की तीव्रता अधिक होने पर दाने सिकुड़ कर छोटे रह जाते है । देरी से बुवाई करने पर एवं शीतकालीन वर्षा होने या समय तक आर्द्रता बनी रहने से रोग का प्रकोप बढ जाता है। रोकथाम हेतु थायोफिनेट मिथाईल 70 प्रतिशत डब्ल्यू. पी. 300 ग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिए।
4. अंगमारी : इस रोग से पूरा पौधा प्रभावित होता है। रसायनिक दवा के रुप में केप्टान 1 ग्राम प्रति लीटर पानी मे घोलकर छिड़काव करें।
कीट नियंत्रण :
1. फल मख्खी : इसका प्रौढ़ आकार में छोटी तथा नारंगी रंग की होती है। जिनके पंख पारदर्शी होते हैं। इसकी इल्ली ही फसलों को हांनि पहुॅचाती है। इल्ली अण्डाशय को खाती है जिससे केप्सूल एवं बीज नहीं बनते हैं। मादा कीट 1 से 10 तक अण्डे पंखुड़ियों के निचले हिस्से में रखती है। जिससे इल्ली निकल कर अण्डाशयों को खा जाती है जिससे कैप्सूल एवं बीज का निर्माण नहीं होता है। यह अलसी को सर्वाधिक नुकसान पहॅुचाने वाला कीट है जिसके कारण उपज में 60-85 प्रतिशत तक क्षति होती है। नियंत्रण के लियें ईमिडाक्लोप्रिड 17.8 एस.एल. 5 मिलीलीटर प्रति 15 लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करें।
2. अलसी की इल्ली : प्रौढ़ कीट मध्यम आकार के गहरे भूरे रंग या धूसर रंग का होता है, जिसके अगले पंख गहरे धूसर रंग के पीले धब्बे युक्त होते है । पिछले पंख सफेद, चमकीले, अर्धपारदर्शक तथा बाहरी सतह धूसर रंग की होती है। इल्ली लम्बी भूरे रंग की होती है। जो तने के उपरी भाग में पत्तियों से चिपककर पत्तियों के बाहरी भाग को खाती है। क्लोरोपायरीफॉस 50 ई सी 1.5 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करें।
3. सेमी लूपर : इल्ली हरे रंग की होती है जो प्रारंभ में मुलायम पत्तियों तथा कैप्सूल के विकास होने पर उनको खाकर नुकसान पहॅुचाती है। क्लोरोपायरीफॉस 50 ई सी 1.5 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करें।
4. चने की इल्ली : छोटी इल्ली पौधे के हरे भाग को खुरचकर खाती है बड़ी इल्ली फूलों एवं कैप्सूल को नुकसान पहॅुचाती है। समन्वित तरीके से नियंत्रित करें।
कटाई, गहाई एवं भण्डारण : जब फसल की पत्तियाँ सूखने लगें, कैप्सूल भूरे रंग के हो जायें और बीज चमकदार बन जाय तब फसल की कटाई करनी चाहिये। थ्रेशर से गहाई करें तथा सफाई करके भण्डारण करें। बीज में 8 प्रतिशत नमी की मात्रा भंडारण के लिये सर्वोत्तम है।