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चने की खेती

द्वारा, दिनांक 21-08-2019 05:43 PM को 1313

चने की खेतीदलहनी फसलो में चना का अत्याधिक महत्व है, विश्व में भारत का चने के उत्पादन एव् उपयोग में प्रमुख स्थान है, चने का भारत में प्रमुख उत्पादक राज्य उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, महाराष्ट, और मध्य प्रदेश प्रमुख हैI

जलवायु एवं भूमि :
 चने की खेती के लिए समशीतोष्ण एवं शुष्क जलवायु की आवश्यकता होती है, चने की खेती के लिए अनुकुलित तापमान 25 से 30 डिग्री सेंटीग्रेड उपयुक्त माना जाता है, चने की खेती मुख्यता वर्षा आधारित क्षेत्रो में की जाती हैI लेकिन सिंचित फसल भी लगायी जाती है।

खेत की तैयारी :
 चना के लिए खेत की मिट्टी बहुत ज्यादा महीन या भुरभुरी  बनाने की आवश्यकता नही होती । बुआई के लिए खेत को  तैयार करते समय 2-3 जुताईयाँ कर खेत को  समतल बनाने के लिए पाटा लगाऐं। पाटा लगाने से  नमी संरक्षित रहती है ।

भूमि उपचार :
 दीमक एवं कटवर्म से बचाव के लिए क्विनॉलफॉस 1.5 प्रतिशत चूर्ण आखिरी जुताई के समय खेत में मिलाएं। जिन क्षेत्रो में जड़ गलन का प्रकोप अधिक होता है वहां 2.5 किलोग्राम ट्राइकोडर्मा 100 किलोग्राम नमी युक्त गोबर की खाद में मिलाकर 10 दिन तक ढककर रखें और पलेवा देते समय खेत में मिलाएं।

उन्नत किस्मे :

मध्य प्रदेश 
1. काबुली : JGK -1, JGK -2, JGK -3
2. सामान्य :  JG 14, JG 63, जाकी 9218, JG 412, JG 130, JG 16, JG 11, JG 322, JG 218, JG 74, JG 315
राजस्थान :
1. काबुली : GNG 1292
2. सामान्य :  GNG 1958, GNG 1581, GNG 1969, GNG 1488, GNG 1499, GNG 663, GNG 469, RSG 945, RSG 888, प्रताप चना - 1
उत्तर प्रदेश : अवरोधी, पूसा 256, राधे, के 850, जे. जी. 16 तथा के.जी.डी-1168, पूसा 372, उदय तथा पन्त जी. 186

बीज उपचार :
 उकठा एव जड  सड़न रोग से फसल के बचाव हेतु  2 ग्राम थायरम + 1 ग्राम कार्बेन्डाजिम के मिश्रण से प्रति किलो बीज को उपचारित करे । इसके पश्चात राइजोवियम एव  पी.एस.बी. प्रत्येक की 5 ग्राम मात्रा प्रतिकिलो बीज की दर से उपचारित करें । मोलिब्डेनम 1 ग्राम प्रति किलो बीज की दर से उपचारित करे।

बुवाई का समय :
  असिंचित अवस्था में चना की बुआई अक्टूबर के द्वितीय सप्ताह तक कर देनी चाहिए। चना की खेती, धान की फसल काटने  के बाद भी की जाती है , ऐसी स्थिति में बुआई दिसंबर के मध्य तक आवश्यक  कर लेनी चाहिए। बुआई में अधिक विलम्ब करने पर पैदावार कम हो जाती है। तथा फसल में चना फली भेदक  का प्रकोप  भी अधिक होने की सम्भावना बनी रहती है । अतः अक्बटूर का प्रथम सप्ताह चना की बुआई के लिए सर्वोत्तम होता है । सिंचित क्षेत्र में बुवाई नवम्बर के दूसरे सप्ताह तक तथा पछेती बुवाई दिसम्बर के प्रथम सप्ताह तक कर देनी चाहिए

बीज दर :
 देशी  छोटे दानो  वाली किस्मों का 65 से 75 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर, मध्यम दानों  वाली किस्मो  का 75-80 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर तथा काबुली चने की किस्मों का 100 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से बुवाई करे।

बुवाई की विधि :
 कतार में बुवाई करें और पौध संख्या 25 से 30 प्रति वर्ग मीटर के हिसाब से रखे । कतार के बीच की दूरी 30 से .मी. तथा पौधे से पौधे की दूरी  10 से.मी रखे। सिंचित अवस्था में काबुली चने में  कूंड़ों के बीच की दूरी 30 से .मी. 45 से.मी. रखनी चाहिए। पछेती बोनी की अवस्था में कम वृद्धि के कारण उपज में होने वाली क्षति की पूर्ति के लिए सामान्य बीज दर मे  20-25 तक बढ़ाकर बोनी करे । देरी से  बोनी  की अवस्था में पंक्ति से पंक्ति की दूरी घटाकर 25 से.मी. रखें।

खाद एवं उर्वरक :
 उर्वरकों  का उपयोग मिट्टी परीक्षण के आधार पर ही किया जाना चाहिए। अच्छी उपज प्राप्त करने के  लिए 20-25 किलोग्राम नत्रजन 50-60 किलोग्राम फास्फोरस 20 किलोग्राम पोटाष व 20 किलोग्राम गंधक  प्रति हेक्टेयर की दर से उपयोग करे । असिंचित दशा में देर से बुवाई की दशा में 2 प्रतिशत यूरिया के घोल को फूल आने से पहले छिडकाव करना चाहिएI

खरपतवार नियंत्रण :
 खरपतवार नियत्रण के लिए हमें पेंडामेथालिन की 3.3 लीटर मात्रा को 1000 लीटर पानी में मिला कर बुवाई के बाद एक दो दिन के अन्दर छिडकाव कर देनी चाहिएI

सिंचाई प्रबंधन :
 चने की खेती में सिचाई की आवश्यता कम पडती है, लेकिन फिर भी प्रथम सिचाई आवश्यतानुसार बुवाई के 45 से 60 दिन के बाद फूल आने से पहले करना अति आवश्यक है, तथा दूसरी सिचाई फलियों में दाना बनते समय करनी चाहिए, फूल आते समय सिचाई नहीं करनी चाहिएI

रोग एवं कीट नियंत्रण :


1. 
उखटा : उकठा चना की फसल का प्रमुख रोग  है।  उकठा के लक्षण बुआई के 30 दिन से फली लगने तक दिखाई देते है । पौधों  का झुककर मुरझाना विभाजित जड़ में  भूरी  काली धारियों का दिखाई देना । प्रबंधन के लिए ग्रीष्मकालीन गहरी जुताई करे। चना की बुवाई अक्टूम्बर  माह के अंत में या नवम्बर माह के प्रथम सप्ताह में करें उकठा रोगरोधी जातियाॅ  लगाऐं।  बीज बोने से पहले  बीज उपचार करें। सिंचाई शाम के समय करे । ट्राइकोडर्मा से भूमि उपचार लाभकारी है।

2. 
कटुआ इल्ली : यह लगभग 2 से 5 सेन्टी मीटर लम्बा तथा 0.7 सेन्टी मीटर चोड़ा मटमैला रंग का होता है, इस कीट के लिए हरे तथा भूरे रंग की सुड़ियाँ रात में निकलकर नये पौधों को जमीन की सतह से तथा पुरानी पौधों की शाखाओ को काटकर गिरा देते है। नियंत्रण के लिए भूमि उपचार लाभकारी है।

3. 
फली बेधक  : चने की फसल पर लगने वाले कीटों में फली भेदक सबसे खतरनाक कीट है। इसके अंडे लगभग गोल, पीले रंग के  मोती की तरह एक-एक करके  पत्तियों पर बिखरे रहते हैं। अंडों से 5-6 दिन में नन्हीं-सी सूड़ी निकलती है जो कोमल पत्तियों को खुरच-खुरच कर खाती है। सूड़ी 5-6 बार अपनी केंचुल उतारती है और धीरे-धीरे बड़ी होती जाती जैसे-जैसे सूड़ी बड़ी होती जाती है, यह फली में छेद करके  अपना मुँह  अंदर घुसाकर सारा का सारा दाना चट कर जाती है। सूड़ी पीले , नारंगी, गुलाबी, भूरे  या काले रंग की होती है। इसकी पीठ पर विशेषकर  हल्के  और गहरे रंग की धारियाँ होती हैं।

नियंत्रण के लिए :


1. 
फेरोमेन  ट्रैप लगाएं :  इसका प्रयोग कीट का प्रकोप बढ़ने से पहले चेतावनी के  रूप में करते हैं। जब नर कीटों की संख्या प्रति  रात्रि प्रति टैप 4-5 तक पहुँचने लगे तो  समझना चाहिए कि अब कीट नियंत्रण जरूरी। इसमें उपलब्ध रसायन (सेप्टा) की ओर कीट आकर्षित होते है और विशेष रूप से बनी कीप (फनल) में  फिसलकर नीचे लगी पाॅलीथीन में एकत्र हो जाते है।

2. 
इंटर क्रॉप : चना फसल के साथ धनियों/सरसो एवं अलसी को हर 10 कतार चने के  बाद 1-2 कतार लगाने से चने  की इल्ली का प्रकोप कम होता है तथा ये  फसलें मित्र कीड़ों को आकर्षित करती हैं ।

3. NPV :
 न्यक्लियर पोलीहैड्रोसिस विषाणु आर्थिक हानि स्तर की अवस्था में पहुंचने पर सबसे पहले जैविक कीटनाशी , एच.एन.पी.वी को 250 मि.ली. प्रति हे. के  हिसाब से 500 लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करना चाहिए। जैविक कीटनाशी  में विषाणु के  कण होते हैं, जो सुंडियों द्वारा खाने पर उनमें विषाणु की बीमारी फैला देते हैं, जिससे वे पीली पड़ जाती है तथा फूल कर मर जाती हैं। रोगग्रसित व मरी हुई सुंडियाँ पत्तियों व टहनियों पर लटकी हुई नजर आती हैं।

4. "T" 
आकर की खपच्चिया : कीटभक्षी चिड़ियों का महत्वपूर्ण योगदान है। 50 खूंटी प्रति हेक्टेयर लगाएं। कीट आक्रमण होने से पहले  यदि खेत में जगह-जगह पर तीन फुट  लंबी डंडियाँ टी एन्टीना (टी आकार में ) लगा दी जाये तो इन पर पक्षी बैठेंगे जो  इल्लियों को खा जाते हैं। इन डंडियों को  फसल पकने से पहले हटा दे  जिससे पक्षी फसल के  दानों को नुकसान न पहुंचायें।

5. 
कीटनाशी द्वारा : आवश्यकता होने पर निम्न रसायनो का प्रयोग करें। क्लोरोपायीरफास 2 मिलीलीटर प्रति लिटर पानी या इन्डोक्साकार्व 14.5 एस.सी. 300 ग्राम प्रति हेक्टेयर या इमामेक्टिन बेन्जोइट की 200 ग्राम दवा प्रति हेक्टेयर 500 लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें ।

कटाई
गहाई एवं भण्डारण : चना का भण्डारण करते समय नमी पर ध्यान देना चाहिए। दानों  को सुखाकर उपकी नमी को 10-12 प्रतिषत रखना चाहिए। ऐसा न करने पर फली से दाना निकालकर दांत से  काटा जाए और  कट की आवाज आए, तब समझना चाहिए कि चना की फसल कटाई के लिए तैयार है। इस अवस्था में चना के पौधो की पत्तियां हल्की पीली अथवा हल्की भूरी  हो  जाती है , या झड़ जाती है  तब फसल की कटाई करना चाहिये। समय से पहले  कटाई करने से अधिक नमी की स्थिति में  अंकुरण क्षमता पर प्रभाव पड़ता है । काटी गयी फसल को  एक स्थान पर इकट्ठा करके खलिहान में  4-5 दिनों  तक सुखाकर गहाई की जाती है ।

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