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जीरे की खेती

द्वारा, दिनांक 21-08-2019 08:52 PM को 520

जीरे की खेती

बीजीय मसाला उत्पादन मे जीरे का दुसरा प्रमुख स्थान है तथा इसका वानस्पतिक नाम क्युमिनम साइमिनम है। जीरा उत्पादन में भारत का विष्व मे प्रथम व राजस्थान का देष मे द्वितीय स्थान है। और राज्य में जीरे की खेती क्रमषः जोधपुर, जालोर, बाड़मेर, नागौर, जैसलमेर, पाली एवं अजमेर जिलों में बहुतायत से की जाती है। इसके वाष्पषील सुगंधित तेल का उपयोग खुषबूदार साबुन व केष तेल बनाने व ठंडाई, शराब आदि पेय पदार्थो को सुसजिज्त करने में भी किया जाता हैं। जीरे में उपस्थित गंध क्यूमिनेल्डिहाइड नामक कार्बनिक पदार्थ के कारण आती है। जीरे मे वायुनाषक व मूत्रवर्धक गुण पाये जाते हैं, जिसके कारण देषी व आयुर्वेदिक दवाओं में जीरे का उपयोग होता है। मसाले के रूप में जीरे को हर प्रकार की सब्जियाँ, सूप, अचार, सॉस, पनीर आदी को स्वादिष्ट करने के लिए काम मे लिया जाता हैं।

जलवायुः- जीरा शीत ऋतु की फसल है जिसके लिए शुष्क एवं ठण्डी जलवायु कि आवष्यकता होती है। जीरे की अच्छी पैदावार के लिए मौसम साफ व बादल रहित होना चाहिए। अधिक नमी होने से पाला, कीट व बिमारियों का प्रकोप बढ जाता है।

भूमिः- जीरा उत्पादन के लिए रेतीली से दोमट मिट्टी सबसे अधिक उपयुक्त रहती है। भूमि का उचित जल निकास व जीवांष युक्त होना अतिआवष्यक है। क्योंकि जल का ठहराव एवं आंषिक नमी दोनों ही हानिकारक होती है।

उन्नत किस्में:-

·         आर.एस. 1 : अवधी (दिन) 80-90, उपज (क्वि./है) 6-10, टिप्पणी : अगेती व बीज रोंयेदार

·         एम.सी. 43 : अवधी (दिन) 105-115, उपज (क्वि./है) 5-6, टिप्पणी :  झुलसा से प्रतिरोधीगंधतेल 2.7 %

·         आर.जेड. 19 : अवधी (दिन) 120-130, उपज (क्वि./है) 5-6, टिप्पणी :  7 सिंचाई की जरूरतगंधतेल 3 %

·         आर.जेड़. 209 :अवधी (दिन) 140-150, उपज (क्वि./है) 6.5, टिप्पणी :  छाछ्या से प्रतिरोधी

·         आर.जेड. 223 :अवधी (दिन) 120-130, उपज (क्वि./है) 6, टिप्पणी :  उखटा व झुलसा से प्रतिरोधी; 3.25 % गंधतेल

·         जी.सी. 1 : अवधी (दिन) 105-110, उपज (क्वि./है) 6-7, टिप्पणी : उखटा से सहनषीलगंधतेल 3.6 %

·         जी.सी. 2 : अवधी (दिन) 100, उपज (क्वि./है) 6-7, उखटा व झुलसा से प्रतिरोधीगंधतेल 4 %

·         जी.सी. 3 :अवधी (दिन) 98, उपज (क्वि./है) 7, उखटा से सहनषीलगंधतेल 4.4 %

·         जी.सी. 4 : अवधी (दिन) 120,उपज (क्वि./है) 8-10, उखटा व झुलसा से प्रतिरोधी

 

खेत की तैयारीः- समय के अनुसार 15 से 30 दिन पुर्व मिट्टी पलटने वाले हल से एक गहरी जुताई करके छोड देंउसके बाद एक या दो जुताई देषी हल या हैरो से मिट्टी को भूरभूरी बनाने के लिए करें और अंत मे पाटा लगा दें, जिससे मृदा मे नमी की कमी न हो। हल्की मिट्टी में कम व भारी मिट्टी में अधिक जुताई करके खेत को तैयार करें।

बीज की मात्रा एवं बीजोपचारः- एक हैक्टर क्षेत्र के लिये 12-15 किलोग्राम बीज पर्याप्त रहता है। बुवाई से पूर्व जीरे के बीज को 2 ग्राम कार्बेण्डाजि़्ाम 50 डब्ल्यू.पी. या 4 ग्राम ट्राईकोडेर्मा प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित जरूर करें।

बुवाई का समय एवं विधिः- जीरे की बुवाई नवम्बर के प्रथम पखवाड़े मे कर देनी चाहिये। बुवाई आमतौर पर छिटकवां विधि की अपेक्षा 30 सेन्टीमीटर की दूरी पर कतारों मे करना अधिक उपयुक्त रहता है। कतारों में बुआई के लिये क्यारियों में लोहे या लकड़ी के हुक से बनाई गयी लाइनों में बीज डालकर दन्ताली चलादें। बुवाई के समय इस बात का ध्यान रखें कि बीजों पर मिट्टी की परत एक सेन्टीमीटर से ज्यादा मोटी न हों।

पोषक तत्व प्रबंधनः- खाद एवं रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग मृदा परीक्षण फसल अनुक्रिया के आधार पर ही करना चाहिए। जीरे मे उचित पोषण प्रबंधन के लिए कम्पोस्ट खाद के साथ सिफारिष की गयी 36 कि.ग्रा. नत्रजन, 10 कि.ग्रा. फास्फोरस, 18 कि.ग्रा. पोटास एवं अन्य उर्वरकों की मात्रा का उपयोग निम्न विकल्पों के अनुसार करना चाहिए.

विकल्प 1 : कम्पोस्ट खाद 5-10 टन, युरीया 56 Kg, डी.ए.पी. 56 Kg, एम.ओ.पी. 30 Kg /Ha

विकल्प 2 : कम्पोस्ट खाद 5-10 टन, युरीया 78 Kg, एस.एस.पी. 162 Kg, एम.ओ.पी. 30 Kg /Ha

 नोटः खाद एवं उर्वरकों की मात्रा का उपयोग उपरोक्त निर्दिष्ट कीसी भी एक विकल्प के आधार पर करें।

अच्छी तरह सड़ा-गला कर तैयार की गयी कम्पोस्ट (देषी) खाद की पूरी मात्रा को खेत में जुताई से पुर्व डालकर अच्छी तरह मिला देवें। बुवाई के समय नत्रजन की आधी तथा फास्फोरस एवं पोटास की पूरी मात्रा बीज के साथ या सीड कम फ़र्टिलाइज़र ड्रिल से डालें। नत्रजन की शेष आधी मात्रा के पुनः दो भाग करें, जिसके एक भाग को बुवाई के 35 दिन बाद एवं दुसरे भाग को बुवाई के 60 दिन बाद सिंचाई के समय देवें।

सिंचाई प्रबंधनः- बुवाई के तुरंत बाद एक सिंचाई करें परंतु यह ध्यान रखें कि पानी का बहाव तेज न रहें अन्यथा बीज अस्त-व्यस्त हो सकते है। दूसरी हल्की सिंचाई जमीन के अनुसार बुवाई के 4-10 दिन बाद करें जब बीज फूलने लगें। चूँकि बीजों का अंकुरण दूसरी सिंचाई के बाद ही दिखाइ देता है, इसलिए यदि धूप से जमीन पर पपड़ी जम जाये तो एक बहूत ही हल्की सिंचाई और कर सकते है ताकी अंकुरण अच्छी तरह से हो सकें। इसके बाद मौसम व भूमि के आधार पर 20-25 दिनों के अन्तराल पर कुल तीन सिंचाईया क्रमषः 35, 60 एवं 85 दिन बाद करें। इनमे से अन्तिम सिंचाई दाने बनते समय गहरी करें। फसल पकने के समय सिंचाई बिल्कुल न करें।

खरपतवार नियन्त्रणः- निराई-गुडाईः जीरे की फसल में कम से कम दो निराई-गुडाई की आवष्यकता होती है। पहली बार 30-35 दिन बाद करें जब पौधे 5 सेन्टीमीटर लम्बे हो, तथा इसी समय पौधो की छंटनी करके पौधे से पौधे की दूरी 5-10 सेन्टीमीटर रख लें जीससे कि फसल पर कीटों व रोगों का प्रकोप अपेक्षाकृत कम हों। दूसरी निराई-गुडाई 55-60 दिन बाद करें।

रासायनिक नियन्त्रणः जहां निराई-गुड़ाई का प्रबन्ध नही हो सके वहां खरपतवार नियन्त्रण के लिए बुवाई के बाद परंतु अंकुरण से पहले पेन्डीमेथालिन 30 ई.सी. दवा को 2.5 लीटर प्रति हैक्टेयर की दर से 600 लीटर पानी मे मिलाकर छिड़काव करें। या बुवाई के 20-25 दिन बाद आक्सीफ्लूओरफेन 23.5 ई.सी. दवा को 200 मिलीलीटर प्रति हैक्टेयर की दर से 600 लीटर पानी मे मिलाकर छिड़काव करें।

कीट एवं रोग प्रबंधनः-

मोयला/चैपा (एफिड):- जीरे में रस चुसने वाले कीटों में मोयला प्रमुख है। इसका प्रकोप फूल आते समय अधिक होता हैजो दाना पकने तक रहता है। यह कीट पौधों के ऊपरी भाग के सभी अंगों पर झुण्ड में चिपककर रस चूसता है तथा इस कीट द्वारा वहीं पर मीठा द्रव्य पदार्थ छोड़ने से काली फफूंद पनप जाती है। इससे प्रभावित पौधे कमजोर हो जाते है जिससे पत्तियां सिकुड़कर मुड़ने लगती है। नम मौसमहल्की बूंदाबादीलम्बे समय तक बादल छाये रहने पर कीट के शिशु व प्रोढों का प्रकोप उग्र रूप धारण कर लेता है जो हानिकाकर होता है।

नियन्त्रणः-

1-    खेत की साफ-सफाई का ध्यान रखे एवं खेत को खरपतवार से मुक्त रखें।

2-    कीट के प्रकोप की निगरानी रखते हुए पीले चिपचिपे पाष (येलो स्ट्रीकी ट्रेप) काम में लेवें। दस पीले चिपचिपे पाष प्रति हैक्टेयर के लिए पर्याप्त हे।

3-     रासायनिक नियन्त्रण के लिए डाईमेथोएट 30 ई.सी. को 1.2 लीटर प्रति हैक्टेयर की दर से 600 लीटर पानी मे मिलाकर छिड़काव करें। या थायमिथोक्ज़ाम 25 डब्ल्यू.जी. को 100 ग्राम प्रति हैक्टेयर की दर से 600 लीटर पानी मे घोल बनाकर छिड़काव करें। यदि आवष्यकता हों तो छिड़काव 15-20 दिन बाद दोहरायें।

उखटा (विल्ट):- यह रोग फ्यूजेरियम आक्सीस्पोरम-क्यूमिनि नामक कवक से होता है। उखटा का प्रकोप पौधों की किसी भी अवस्था मे हो सकता हैपरन्तु प्रारम्भिक अवस्था मे ज्यादा होता है। चूँकी यह रोग बीज व मृदा जनित हैइसलीए पौधों की जड़ों मे लगता है। इस से ग्रसित पौधे खेत में हरे के हरे ही मुरझा कर सूखने लगते हैरोगी पौधे कद मे छोटे तथा पत्तियां दूर से ही पीली नजर आती है।

नियन्त्रणः-

1-    रोग ग्रसित खेत में जीरे की बुवाई नही करें। कम से कम तीन वर्ष का फसल-चक्र अपनाये।

2-    गर्मी में खेत की गहरी जुताई जरूर करें, तथा बुवाई से पूर्व सरसों, अरंडी या नीम की खली 2.5 टन प्रति हैक्टेयर की दर से देषी खाद के साथ भूमि में मिलावें।

3-    ट्राइकोडर्मा विरीडी (जैविक फफूंदनाषी) 4 कि.ग्रा. प्रति हैक्टेयर की दर से 100 कि.ग्रा. देषी खाद में अच्छी तरह मिलाकर तैयार करें, तथा अंतिम जुताई से पुर्व भूमि में मिलाकर मृदा उपचार करना न भुलें।

4-    रोग रोधक किस्म के स्वस्थ बीज को उपचारित करके ही बुवाई हेतु काम मे लें।

5-     रासायनिक नियन्त्रण के लिए मेन्कोजेब का 2 ग्राम प्रति लीटर पानी की दर से छिड़काव करें। आवष्यक हों तो 10-15 दिन बाद दोबारा छिड़काव करें।

झुलसा (ब्लाइट):- यह रोगअल्टरनेरिया बर्नसीनामक कवक द्वारा फूल आने के समय आकाष मे बादल छाये रहने पर अवश्य होता है। इस रोग के लक्षण पौधे की पत्तियों पर गहरे भूरे रंग के धब्बों के रूप में दिखते है और पौधों के सिरे झुकने लगते है। रोग का प्रकोप ज्यादा होने पर धब्बे पत्तियों से तने एवं बीजो पर बढ़ते है और धीरे-धीरे ये काले रंग में बदल जाते है जिससे पौधा झुलसा हुआ दिखाई देता है।

नियन्त्रणः-

1-    गर्मी में गहरी जुताई करे व फसल चक्र अपनावें। स्वस्थ बीज ही बोने के काम में लें व बीज को उपचारित जरूर करें।

2-    सिंचाई का उचित प्रबन्धन करेंतथा ज्यादा पानी वाली फसलें जीरे के पास नही लगायें।

3-     फसल में फूल शुरू होने के बाद खासतौर से नमी बढ जावे एवं आकाष मे बादल दिखाई दे तब फसल पर डाइथेन एम 45 (मेन्कोजेब) का 2 ग्राम प्रति लीटर पानी की दर से छिड़काव करें। आवश्यक हों तो 10-15 दिन बाद दोबारा छिड़काव करें।

छाछ्या/चूर्णी फफूंद (पाउडरी मिल्ड्यू):- यह रोगएरीसिफी पालीगोनी” नामक कवक द्वारा बादल छाये रहने या वातावरण मे नमी बड़ने से होता है। इस रोग का लक्षण सर्वप्रथम पत्तियों पर सफेद चूर्ण के रूप मे दिखाई देता है जो जल्दी ही वृद्धि करके तने व फूलों एवं अंत मे बीजो पर फैल जाता है। रोग बढ़ने पर पूरा पौधा ही सफेद से गन्दला होकर कमजोर हो जाता है।

नियन्त्रणः-

1-    जीरे की बुवाई समय पर करेंदेरी से बोने के कारण इस रोग का प्रकोप अधिक होता है।

2-     रोग के लक्षण दिखाई देते ही बिना देरी किये गन्धक का चूर्ण 24 किलोग्राम प्रति हैक्टेयर की दर से भुरकाव करें। या घुलनषील गंधक का 0.25 प्रतिषत (2.5 ग्राम प्रति एक लीटर पानी की दर से) या डिनोकेप का 0.1 प्रतिषत (मि.ली. प्रति एक लीटर पानी की दर से) घोल बनाकर छिड़काव करें। आवष्यकतानुसार छिड़काव या भुरकाव 10-15 दिन बाद दोहरायें।

पौध संरक्षण रासायनिक छिड़काव कार्यक्रमः खड़ी फसल में कीट व रोगों के सम्मिलित नियन्त्रण हेतु निम्नानुसारपौध संरक्षण रासायनिक छिड़काव कार्यक्रम” अपनायें।

प्रथम छिड़कावः- बुवाई के 30-35 दिन बाद जीरे की फसल पर फफूंदनाषी दवा (मेन्कोज़ोब 75 डब्ल्यू.पी.) 1.2 किलोग्राम प्रति हैक्टेयर की दर से 500 लीटर पानी मे घोल बनाकर छिड़काव करें।

द्वितीय छिड़कावः- बुवाई के 40-45 दिन बाद फफूंदनाषी दवा (1.2 किलोग्राम मेन्कोज़ोब 75 डब्ल्यू.पी. + 1.2 किलोग्राम घुलनषील गंधक) + कीटनाषी दवा (1.2 लीटर डाईमेथोएट 30 ई.सी. या 1.2 लीटर फोस्फामिडोन 40 एस.एल. या 100 ग्राम थायमिथोक्ज़ाम 25 डब्ल्यू.जी.) को प्रति हैक्टेयर की दर से 250 लीटर पानी मे घोल बनाकर छिड़काव करें।

तृतीय छिड़कावः- द्वितीय छिड़काव को 10-15 दिन बाद उपरोक्त अनुसार ही दोहरायें।

भुरकावः- तीसरे छिड़काव के 10-15 दिन बाद 24 किलोग्राम प्रति हैक्टेयर की दर से गंधक के चूर्ण का भुरकाव करें।

कटाई एवं भण्डारणः- जीरे की फसल लगभग 100-115 दिन में पककर तैयार हो जाती है। फसल पकने पर तने और दानों में पीलापन आने लगता है और पत्तिया सूखकर गिरने लगती है। कटाई के बाद खलिहान मे फसल को छाया में सुखाकर स्वच्छ पक्के फर्ष पर धीरे-धीरे पीटकर दाने अलग कर लेवें। दानों को अच्छे से सुखाने के बाद बोरियों मे भरें। बीजों की गुणवत्ता बनाये रखने के लिए भण्डारण से पुर्व यह सुनिस्चित कर लें की बोरीयों मे भरते समय दानों मे नमी 8-10 प्रतिषत से अधिक नही रहें।

उपजः- उन्नत कृषि क्रियायें अपनाकर जीरे की फसल से 8-10 क्विंटल प्रति हैक्टेयर तक दाने की उपज प्राप्त की जा सकती है।


डॉ. कृष्ण गोपाल व्यास

विषय विशेषज्ञ (शस्य विज्ञान)

कृषि विज्ञान केन्द्र, पोकरण (जैसलमेर-II)

स्वामी केशवानन्द राजस्थान कृषि विश्वविद्यालय, बीकानेर

राष्ट्रीय राजमार्ग – 11, गोमट, पोकरण, जैसलमेर, राजस्थान 345021

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