मटर की उन्नत खेती
मटर रबी की एक महत्वपूर्ण तथा अधिक आय देने वाली फसल है। इसके ताजे दानों का उपयोग सब्जी के रूप में किया जाता है। इसके अतिरिक्त इसे डिब्बाबंदी व निर्जलीकरण के रूप में परिरक्षित किया जाता है। इसमें आसानी से पचने वाले प्रोटीन, विटामिन तथा कई खनिज लवण पाये जाते हैं।
जलवायु एवं भूमि: शरद ऋतु की फसल होने के कारण ठण्डी जलवायु उपयुक्त रहती है। पाले से इसके फूल व फलीं को नुकसान पहुँचता है। बीज की बुवाई के समय भूमि का तापमान 22 डिग्री सेंटीग्रेड होना चाहिए। इससे कम तापमान पर अंकुरण बहुत धीरे होता है। अधिक तापमान पर पौधे कमजोर एवं बौने रह जाते हैं तथा उपज पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
मटर की खेती विभिन्न प्रकार की भूमि में की जा सकती है। इसके लिए दोमट भूमि सबसे उपयुक्त रहती है। भारी मिट्टी जहाँ पानी का निकास अच्छा न हो वहाँ इसकी फसल अच्छी नहीं होती है तथा ऐसी भूमि में सिंचाई के बाद पौधे पीले पड़कर सूख जाते हैं।
उन्नत किस्में: अगेती फसल के लिए बी एल-3, अर्किल, हरा बौना, जवाहर मटर 4 (जी सी 195) मटर अगेती 6 हैं। इनकी फलियाँ 50 से 60 दिन में आती हैं।
मुख्य फसल के लिए बोर्नविला, जवाहर मटर 1 (जी सी 141), पंजाब-88, आजाद पी-1, आर पी-3, जे पी-83, आर पी बी-15, आई पी-3, पी आर एस-4, डी पी आर-68, के एस-245 का प्रयोग करें। जे पी 83, एफ सी-1 छाछ्या रोग रोधी किस्म हैं। इनकी फलियाँ 75 से 90 दिन में तैयार होती हैं।
खेत की तैयारी: बुवाई के लिए खेत को अच्छी तरह तैयार कर लेना चाहिए। यदि भूमि में नमी न हो तो पलेवा करके बुवाई करें। पहले खेत की गहरी जुताई करें तथा बाद में हैरो चलाकर खेत को भली-भाँति बुवाई के अनुकूल बनायें।
बीजोपचार: दलहनी फसल होने के कारण इसकी जड़ों की गांठों को विकसित करने के लिए बीज को राइजोबियम कल्चर से उपचारित करना चाहिए। बीजोपचार के लिए 100 ग्राम गुड़ का एक लीटर पानी में घोल बना लें एवं इसमें तीन पैकेट राइजोबियम कल्चर मिला देवें। तथा बीज को इस घोल में भली-भाँति मिला देवें। उपचारित बीज को छाया में सुखाने के बाद तुरन्त बो देवें। एक हैक्टर के बीज को उपचारित करने के लिए 1.25 लीटर घोल पर्याप्त है। जड़ गलन रोग की रोकथाम के लिए 2.5 से 3.0 ग्राम थाइरम प्रति किलो बीज की दर से उपचारित करें।
बुवाई: प्रति हैक्टर 80 से 100 किलो बीज पर्याप्त होता है। बीज की बुवाई के लिए कतार से कतार की दूरी 30 से.मी. तथा पौधे से पौधे की दूरी 8 से 10 से.मी. रखें। बुवाई अक्टूबर माह से नवम्बर तक करनी चाहिए। अक्टूबर से पूर्व बुवाई करने से फसल पर प्रतिकूल असर पड़ता है।
खाद एवं उर्वरक: खेत कीे तैयारी के समय 200 से 250 क्विंटल गोबर की खाद प्रति हैक्टर की दर से खेत में मिला देवें तथा जुताई करें। अंतिम जुताई के समय 25 किलो नत्रजन, 40 किलो फाॅस्फोरस तथा 50 किलो पोटाश प्रति हैक्टर की दर से देवें।
सिंचाई एवं निराई-गुड़ाई: अन्य सब्जियों की तुलना में कम पानी की आवश्यकता होती है। बुवाई के तुरन्त बाद खासतौर पर यदि पर्याप्त नमी हो तो सिंचाई नहीं करनी चाहिए। पर्याप्त नमी हेतु पलेवा देने के बाद ही बुवाई करनी चाहिए तथा पहली सिंचाई बुवाई के 4 से 5 सप्ताह बाद करें। हल्की भूमि में बुवाई के बाद हल्की सिंचाई करें। इसेक बाद 7 से 10 दिन के अन्तर पर आवश्यकतानुसार दूसरी सिंचाई करें।
बुवाई के लगभग एक माह बाद निराई-गुड़ाई करना आवश्यक होता है। आवश्यकतानुसार दूसरी बार भी निराई-गुड़ाई करनी चाहिए।
कीट प्रबंध:
तना मक्खी: इस कीट का आक्रमण मटर की अगेती फसल पर अधिक होता है। इस कीट की छोटी-छोटी लटें तने के अंदर ही अंदर सुरंग बनाने लगती हैं। क्षतिग्रस्त पौधों की पत्तियां पीली पड़ जाती हैं एवं पौधे मुरझाने लगते हैं और अंत में मर जाते हैं। यह कीट अक्टूबर-नवम्बर माह में अधिक सक्रिय होता है। नियंत्रण हेतु जिन स्थानों पर इस कीट का प्रकोप बराबर बना रहता है वहाँ बुवाई के समय भूमि में फोरेट 10 जी 10-15 किलो अथवा कार्बोफ्यूराॅन 3 जी 25 किलो प्रति हैक्टर की दर से देवें।
पर्ण खनक: इस कीट के प्रकोप से पत्तियां मुरझा कर सूख जाती हैं। पौधों की वृद्धि रूक जाती है। नियंत्रण हेतु समय से बुवाई करें क्योंकि पिछेती फसल में इसका प्रकोप ज्यादा होता है। यदि तना मक्खी के लिए उपचार किया गया हो तो इसका नियंत्रण स्वतः हो जाता है अन्यथा मोनोक्रोटोफाॅस 36 एस.एल. या मिथाइल डिमेटोन 25 ई.सी. एक मिलीलीटर प्रति लीटर पानी के हिसाब से छिड़काव करें।
फली छेदक: इसकी लटें फलियों को क्षति पहुँचाती हैं। अण्डों से निकलने के बाद ये लटें फलियों में प्रवेश कर अंदर ही अंदर मटर के दानों को खाने लगती हैं। क्षति ग्रस्त फलियों में दाने आधे कटे हुए और कुछ पूर्णतया नष्ट हुए पाये जाते हैं। इसके प्रकोप से काफी हानि होती है। नियंत्रण हेतु क्षति ग्रस्त फलियों को तोड़कर नष्ट कर देना चाहिए। मैलाथियॅान 50 ई.सी. एक मिलीलीटर या कार्बोरिल 50 डब्ल्यू.पी. 4 ग्राम प्रति लीटर पानी की दर से छिड़काव करना चाहिए।
मूल ग्रंथि सूत्रकृमि: इसके प्रकोप से पौधों की जड़ों में गाँठें बन जाती हैं। पौधे पीले पड़ जाते हैं तथा उनकी बढ़वार रूक जाती है। नियंत्रण हेतु बुवाई से पूर्व 25 किलो कार्बोफ्यूराॅन 3 जी प्रति हैक्टर भूमि में मिलावें। फसल चक्र अपनायें।
व्याधि प्रबंध:
छाछ्या: इस रोग के प्रकोप से पत्तियों पर सफेद चूर्णी धब्बे दिखाई देते हैं। इस रोग से फसल को काफी नुकसान होता है। नियंत्रण हेतु 2 ग्राम घुलनशील गंधक या एक मिलीलीटर केराथियान अथवा कैलेक्सिन एक मिलीलीटर प्रति लीटर पानी के घोल का छिड़काव करें। यह छिड़काव 10 दिन के अंतराल पर 2 या 3 बार आवश्यकतानुसार दोहरावें।
बीज एवं जड़ गलन: इस रोग के प्रकोप से या तो बीज सड़ जाते हैं या बीज उगने के बाद पौधे मर जाते हैं। नियंत्रण हेतु बीजों को बोने से पहले थाइरम या केप्टान या मैंकोजैब 2.5 ग्राम प्रति किलो बीज की दर से उपचार करें।
उपज: अगेती किस्में 40 से 60 क्विंटल प्रति हैक्टर उपज देती हैं। मुख्य फसल से 80 से 100 क्विंटल प्रति हैक्टर हरी फली प्राप्त होती है।