लहसुन की उन्नत खेती
लहसुन एक औषधियुक्त नगदी फसल है जिसकी खेती भारत के सभी भागों में की जाती है, लेकिन मुख्य रूप से तमिलनाडु, उत्तरप्रदेश (मैनपुरी), गुजरात, राजस्थान (झालावाड़, बांरा व कोटा), मध्यप्रदेश (इन्दौर, रतलाम व मन्दसौर) में की जा रही है। इसका उपयोग कई तरह की दवाईयाँ व मसालों के रूप में किया जाता है। जैसे अचार, चटनी, केचप तथा सब्जियाँ आदि। लहसुन के मसालीय व दवाईयों के रूप में उपयोग होने के साथ-साथ विदेशी माँग के मध्यनजर कृषक भाई इसका निर्यात कर अच्छा लाभ कमा सकते हैं, परन्तु जरूरत है उच्चगुणवक्ता युक्त उत्पादन अर्थात् वैज्ञानिक खेती तथा प्रसंस्कृत उत्पाद बनाने की, ताकि खेती उद्योग को प्रसंस्कृत उद्योग बनाकर लाभ को और अधिक बढ़ाया जा सके। इसमें विटामिन ‘सी’, फाॅस्फोरस, प्रोटीन, आयरन आदि पौष्टिक तत्व पाये जाते हंैं। लहसुन शल्क कंदीय कोमल पौधा है जिसमें अनेक छोटी-छोटी 6 से 50 कलियाँ होती हैं जो ऊपरी आवरण से ढकी रहती हैं।
जलवायु एवं भूमि: लहसुन ठण्डे मौसम की फसल है, किन्तु अत्यधिक गर्म या ठण्डा मौसम इसकी खेती के लिए अनुकूल नहीं होता है। इसके कंद दीर्घ प्रकाश अवधि में अच्छे बनते हैं। वैसे इसकी खेती विभिन्न प्रकार की जलवायु में की जा सकती है। लहसुन की खेती उचित जल निकास वाली लगभग सभी प्रकार की भूमि में आसानी से की जा सकती है जिसका पी.एच. मान 5 से 7 हो अच्छी रहती है, परन्तु अम्लीय भूमि हानिकारक होती है।
उन्नत किस्में: लहसुन एक नकदी फसल है इसलिए अधिक पैदावार प्राप्त करने के लिए अधिक उत्पादन देने वाली उन्नत किस्मों को उगाना चाहिए। अतः ऐसी किस्मों का चयन करें, जिसकी बाजार में अधिक माँग हो ताकि मूल्य अधिक मिल सके। अतः कृषक भाईयों को मोटी कलियों वाली किस्मों का चुनाव करना चाहिए। कृषक भाई निम्नलिखित किस्मों का चयन कर सकता है-
यमुना सफेद (जी-1): यह किस्म राष्ट्रीय बागवानी अनुसंधान एवं विकास प्रतिष्ठान से विकसित है, जो सम्पूर्ण भारत में उगाने हेतु सिफारिश की गयी है। इसके कंद गठीले व बाहरी त्वचा का रंग सफेद चांदी की चमक, गूदा क्रीम रंग का होता है। कंद का औसत व्यास (4-4.5 से.मी.) एवं एक गाँठ में 25-30 कलियाँ पाई जाती हैं। यह प्रजाति 150-160 दिन में पकती है तथा यह किस्म परपल ब्लोच एवं स्टेमफाईलीयम बीमारी के प्रति सहनशील है। इसका उत्पादन 150-160 क्विंटल प्रति हैक्टर पाया गया है।
यमुना सफेद-2 (जी-50): यह किस्म राष्ट्रीय बागवानी अनुसंधान एवं विकास प्रतिष्ठान से विकसित की गई है। इसकी गांठे गठीली एवं त्वचा सफेद होती है। कंद का औसत व्यास 4 से.मी. है तथा कलियाँ 18-20 तक होती हैं। फसल समयावधि 165-170 दिन है। उपज 150-155 क्विंटल प्रति हैक्टर है। यह किस्म परपल ब्लोच एवं स्टेमफाईलीयम बीमारी के प्रति सहनशील है।
एग्रीफाउड सफेद (जी-41): यह किस्म राष्ट्रीय बागवानी अनुसंधान एवं विकास प्रतिष्ठान से विकसित है। इसकी गांठें गठीली मध्यम आकार के 3.45 से.मी. व्यास की होती है । प्रति गांठ में 20-25 कलियाँ पायी जाती है। यह प्रजाति 150-160 दिन में पककर तैयार हो जाती है। इसकी उपज 130-140 क्विंटल प्रति हैक्टर होती है।
यमुना सफेद-3 (जी-282): यह किस्म बड़े आकार वाली 5.8 से.मी. तथा अधिक उत्पादन के लिए जानी जाती है। इसका उत्पादन 175-200 क्विंटल प्रति हैक्टर तक पाया गया है। इसके कंद गठीले एवं त्वचा का रंग सफेद चांदी जैसा होता है। इसकी कली की साईज 1.04-1.05 से.मी. एवं वजन 2.5-2.8 ग्राम होता है। प्रति कंद कलियों की संख्या 15-17 होती है। यह प्रजाति 140-150 दिन में तैयार होती है। यह प्रजाति निर्यात के लिये उपयुक्त है।
यमुना सफेद-4 (जी-323): यह एन.एच.आर.डी.एफ. द्वारा विकसित किस्म जिसके कंद सफेद बड़े आकार वाले (3.5-4.0 से.मी.) जिसमें कलियाँ 30 से 35 की संख्या में पाई जाती हैं। इसकी पैदावार 175-200 क्विंटल प्रति हैक्टर तथा इसके कंद भण्डारण के लिए उपयुक्त होते हैं। यह किस्म उत्तरी भारत में अच्छी पैदावार देती है।
एग्रीफाउन्ड पार्वती- (जी-313): यह किस्म पहाड़ी भागों में उगाये जाने के लिए उपयुक्त पाई गई है। इसकी बुवाई सितम्बर से अक्टूबर में तथा खुदाई मई माह में करते हैं। यह किस्म 250-270 दिन में पक कर तैयार हो जाती है तथा कंद का व्यास 5-7 से.मी. होता है। इसकी पैदावार 175-200 क्विंटल प्रति हैक्टर तक पाई गई है। यह किस्म निर्यात के लिय उपयुक्त है।
खेत की तैयारी: खेत की अच्छी तरह से 2-3 जुताई करके मिट्टी को भुरभुरी बना लेना चाहिए तथा खरपतवार निकाल कर खेत को समतल कर लेना चाहिए। इसके लिए दो गहरी जुताई कर बाद में हैरो चलाना चाहिए। कंदीय फसल होने के कारण भूमि भुरभुरी तथा जल निकास वाली होनी चाहिए।
बुवाई: लहसुन की बुवाई के लिए 5-7 क्विंटल कलियाँ पर्याप्त होती हैं। इनकी रोपाई का समय अक्टूबर से नवम्बर है। बोते समय इसके लिए कतार से कतार की दूरी 10-15 से.मी. तथा पौधे से पौधे की दूरी 7 से 10 से.मी. रखते हुए 2-3 से.मी. गहरी बुवाई करनी चाहिए।
खाद एवं उर्वरक: खेत की तैयारी के समय 200-250 क्विंटल गोबर की खाद प्रति हैक्टर के हिसाब से जमीन में मिला देना चाहिये। इसके अलावा 100 किलो यूरिया, 100 किलो डी.ए.पी. व 100 किलो म्यूरेट आॅफ पोटाश कलियाँ लगाने से पहले देवें। यूरिया की आधी मात्रा 30-45 दिन बाद खड़ी फसल में गुड़ाई कर सिंचाई के साथ देनी चाहिए। लहसुन की फसल में सूक्ष्म पोषक तत्वों जैसे मैंगनीज सल्फेट 0.1 प्रतिशत, बोरिक ऐसिड 0.02 प्रतिशत व जिंक सल्फेट 0.02 प्रतिशत का छिड़काव करने से फसल की गुणवक्ता एवं उत्पादन अधिक होता है।
खरपतवार नियंत्रण: अंकुरण से पूर्व प्रति हैक्टर 150 ग्राम आॅक्सीफ्ल्यूरफेन (600 ग्राम घोल) अथवा एक किलो पेन्डीमेथिलिन (3.3 किलो स्टाम्प एफ 43) छिड़कें तत्पश्चात् 40 दिन की फसल में एक गुड़ाई करें।
सिंचाई एवं निराई-गुड़ाई: कलियों की बुवाई के बाद एक हल्की सिंचाई करें तथा बढ़वार के समय आठ दिन अन्तराल पर व पकने के समय 10-15 दिन के अन्तराल पर सिंचाई करनी चाहिये। पकने पर जब पत्तियाँ सूखने लगें तो सिंचाई बंद कर देवें। खरपवतार नष्ट करने के लिये निराई-गुड़ाई करना आवश्यक है। गुड़ाई गहरी नहीं करें।
फसल में लगने वाली बीमारियाँ एवं कीट:
थ्रिप्स: यह कीट तापमान की अधिकता (मार्च माह) में अधिक प्रभावी रहता है तथा जिस फसल को बीज के लिये छोड़ा जाता है वहाँ इससे बहुत अधिक क्षति पहुंचती है। यह कीट पत्तियों से रस चूस कर उन्हें कमजोर कर देता है तथा चूसे गये स्थान पर सफेद चकत्ते पड़ जाते हैं। नियंत्रण हेतु फसल पर डाइमथोयट या मैलाथियान 1 मि.ली. प्रति लीटर पानी के हिसाब से घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिये।
मैगट: यह कीट अण्डों से निकलकर तना एवं गांठों (कंदों) में प्रवेश कर नुकसान पहुँचाता है तथा खाये गये स्थान पर अन्य सूक्ष्म जीवों से सड़न होकर कंद सड़ जाते हैं, जो भण्डारण के दौरान अन्य कंदों को सड़ा देते हैं। ठण्डा तथा नम मौसम कीट प्रकोप को बढ़ावा देता है, अतः कीट प्रकोप दिखाई पड़ने पर इमिडाक्लोप्रिड 1.0 मिली प्रति लीटर का घोल बनाकर छिड़काव करें।
सूत्रकृमि: फसल में इसका प्रकोप होने पर फसल की बढ़वार रूक जाती है तथा पत्तियाँ कुरूप नजर आने लगती हैं जो कि उत्पादन पर हानिकारक प्रभाव डालते हैं। अतः इसके नियंत्रण हेतु कार्बोफ्यूराॅन 3जी 25-20 किलोग्राम या नेमाफाॅस 25 किलोग्राम प्रति हैक्टर की दर से बुवाई से पूर्व खेत में मिलावें ताकि सूत्रकृमि के नुकसान से बचा जा सके।
माईट: यह कीट पत्तियों का रस चूसता है जिससे पत्तियों पर पीले धब्बे बन जाते है, परिणामस्वरूप पौधे की बढ़वार रूक जाती है। इसके नियंत्रण हेतु डाईमैथोएट या इथियान (0.05 प्रतिशत) शुरूआती प्रभाव दिखाई देने पर छिड़काव करें।
बैंगनी धब्बा रोग: फफूँदीजनक रोग है, इसमें पत्तियों पर छोटे-छोटे आकार के बैंगनी रंग के धब्बे बन जाते हैं जो फैलकर बड़े हो जाते है तथा फसल को नष्ट कर देता है अतः इसके नियंत्रण हेतु डायथेन एम-45 का 2.5 ग्राम प्रति लीटर या रिडोमिल एम. जेड का 0.1 प्रतिशत का 10-12 दिन के अन्तराल से छिड़काव करें। दवा का छिड़काव करते समय चिपकने वाला पदार्थ जैस इन्डोट्रोन या सैन्डोविट या साधारण गोंद एक लिटर में 6 ग्राम की दर से मिलाकर प्रयोग करें।
तुलासिता (डाऊनी मिल्डयू): यह फफूंद जनित रोग है जिससे पत्तियों की सतह पर सफेद रूई जैसी फफूँद दिखाई पड़ती है जिससे पत्तियाँ गिर जाती है। अतः इसकी रोकथाम हेतु स्वच्छ एवं साफ बीज बोयें तथा लक्षण प्रकट होने पर मैन्कोजेब 2.5 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करें।
कंद सड़न: यह रोग कंद में सड़न पैदा कर पूरे कंद को सड़ा देते हैं तथा फफूँद जनित रोग है, बाद में पूरे कंद में सड़न कर दूसरे स्वस्थ कंदो में भी सड़न पैदा कर सकता है। अतः इसके नियंत्रण हेतु कलियों को कार्बेन्डाजिम 2 ग्राम प्रति किलोग्राम की दर से उपचारित कर बोना चाहिए।
कटाई एवं उपज: लहसुन की फसल बुवाई के 4-5 माह बाद पककर तैयार हो जाती है। जब लहसुन की पत्तियाँ पीली पड़ने लगें उस समय खुदाई की जानी चाहिये। इससे लगभग 100-125 क्विंटल प्रति हैक्टर तक उपज प्राप्त की जा सकती है।
भण्डारण: खुदाई करने के बाद कंदों की सूखी पत्तियाँ काटकर अलग कर देनी चाहिये। बाद में इन्हें टोकरियों में भरकर ठण्डी जगह भण्डारित करना चाहिये।