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आलू की उन्नत खेती

द्वारा, दिनांक 26-08-2019 10:55 AM को 1644

आलू की उन्नत खेती

जलवायु एवं भूमि : आलू के लिये शीतोष्ण जलवायु तथा कन्द बनने के समय उपयुक्त तापक्रम 8 से 20 डिग्री सेन्टीग्रेड होना चाहिये। यह फसल पाले से प्रभावति होती है। आलू की फसल सामान्य तौर पर सभी प्रकार की भूमि में उगाई जा सकती है परन्तु हल्की बलुई दोमट मिट्टी जहाँ जल निकास की सुविधा हो इसके लिये विशेष उपयुक्त रहती है। खेत का समतल होना भी आलू की फसल के लिये आवश्यक है। आलू को 6 से 8 पी एच वाली भूमि में भी सफलतापूर्वक उगाया जा सकता है परन्तु लवणीय तथा क्षारीय भूमि इस फसल के लिये पूर्णतया अनुपयुक्त रहती है।

उन्नत किस्में:

कुफरी सिन्दूरी: इस किस्म के आलू का आकार गोल व आँखें कुछ गहरी होती है व रंग कुछ लालिमा लिये हुए होता है। यह किस्म 110 से 120 दिन में पक कर तैयार हो जाती है। इसकी पैदावार 250 से 350 क्विंटल प्रति हैक्टर होती है।

कुफरी अलंकार: इस किस्म का आलू अण्डाकार, सफेद छिल्के वाली और अण्डाकार, सफेद छिल्के वाला व कम गहरी आंखों वाला होता है। यह औसतन 250 से 300 क्विंटल प्रति हैक्टर उपज देता है तथा इसकी फसल 80 से 90 दिन में तैयार हो जाती है।

कुफरी चन्द्रमुखी: यह किस्म अगेती, सफेद छिल्के वाली और अण्डाकार होती है। बाजार में दूसरी किस्मों की अपेक्षा इसका मूल्य अधिक मिलता है। यह 70-80 दिन में तैयार होती है तथा इससे 200-250 क्विंटल प्रति हैक्टर तक उपज ली जा सकती है।

कुफरी शीतमान: यह किस्म पाला पड़ने वाले क्षेत्रों हेतु ज्यादा उपयुक्त रहती है। आलू सफेद छिल्के वाले चपटे व सुन्दर होते हैं। इसकी पैदावार 300 क्विंटल प्रति हैक्टर होती है।

कुफरी ज्योति: इसके कन्द अण्डाकार सफेद रंग के तथा कई आंखों वाले होते हैं। मैदानी भागों में इसकी पकाव अवधि 100 दिन तथा औसत उपज 200 क्विंटल प्रति हैक्टर है। यह किस्म अगेती व पिछेती झुलसा रोग प्रतिरोधी है तथा इसकी भण्डारण क्षमता अच्छी होती है।

कुफरी बहार: इसके कन्द बड़े सफेद गोल से अण्डाकार, चिकने तथा मध्यम गहरी आंखों वाले होते हैं। इसकी पकाव अवधि 90 से 100 दिन तथा औसत उपज 250 से 350 क्विंटल प्रति हैक्टर होती है। मध्यम भण्डारण क्षमता वाली यह किस्म अगेती व पिछेती झुलसा, वाइरस, सूखा रोग व पाले के लिए सुग्राही है।

कुफरी बादशाह: इसके कन्द बड़े से मध्यम आकार के अण्डाकार, चमकदार, सफेद चिकने, नियमित गहरी आंखों सहित होते हैं। गूदा हल्का सफेद होता है। 90 से 100 दिन की पकाव अवधि वाली इस किस्म की भण्डारण क्षमता अपेक्षाकृत कम है तथा यह अगेती व पिछेती झुलसा, विषाणु रोगरोधी है। इसकी औसत उपज 300 से 400 क्विंटल प्रति हैक्टर होती है। जे.आई. 5857, जे.एच. 222 एवं कुफरी लालिमा आदि अन्य किस्में है।

खेत की तैयारी एवं भूमि उपचार:  इसकी खेती के लिये खेत की जुताई बहुत अच्छी तरह होनी चाहिये। एक जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से तथा फिर दो तीन बार हैरो या देशी हल से जुताई कर मिट्टी को बारीक भुरभुरी कर लेनी चाहिये। प्रत्येक जुताई के बाद पाटा लगाये जिससे ढेेले न रहे। भूमि उपचार के लिये अन्तिम जुताई के समय फोरेट 10 जी 10 किलो या क्यूनाॅलफाॅस 1.5 प्रतिशत चूर्ण 25 किलो प्रति हैक्टर की दर से भूमि में मिला देवें इससे भूमिगत कीटों से फसल की रक्षा होती है।

खाद एवं उर्वरक: फसल की बुवाई के एक माह पूर्व 250-350 क्विंटल प्रति हैक्टर गोबर की खाद देकर भली-भांति खेत में मिला देना चाहिये। इसके अलावा उर्वरकों का प्रयोग भी आवश्यक है। जहाँ तक सम्भव हो सके मृदा परीक्षण के आधार पर ही उर्वरकों का प्रयोग करें। सामान्यतौर पर 120-150 किलो नत्रजन, 80-100 किलोग्राम फाॅस्फोरस एवं 80-100 किलोग्राम पोटाश प्रति हैक्टर के हिसाब से देना चाहिये। नत्रजन की आधी मात्रा, फाॅस्फोरस व पोटाश की पूरी मात्रा बुवाई से पूर्व कूड़ों में ऊर कर देना चाहिये। नत्रजन की शेष आधी मात्रा बुवाई के 30-35 दिन बाद मिट्टी चढ़ाने के साथ देंवे।

बीज की तैयारी:  भण्डारित आलू को 4-5 दिन पूर्व शीतगृह से निकाल कर सामान्य ठण्डे स्थान पर रखना चाहिये। बुवाई से पूर्व इसे 24 से 48 घण्टे तक हवादार, छाया युक्त स्थान पर फैलाकर रखें। इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि शीतगृह से लाये गये आलूओं को धूप में न रखें और न ही तुरन्त बुवाई के लिये प्रयोग में लावें अन्यथा बाहरी तापक्रम की अधिकता की वजह से आलू के सड़ने का खतरा बना रहता है। जिन कन्दों पर अंकुरित प्रस्फुटन न दिखाई दे उन्हें हटा देना चाहिये।

बीज की मात्रा व उपचार: बुवाई के लिये रोग रहित प्रमाणित स्वस्थ कंद ही उपयोग में लाने चाहिये। सिकुड़े हुए या सूखे कन्दों का इस्तेमाल नहीं करना चाहिये। बीज कम से कम 2.5 सेन्टीमीटर व्यास के आकार का या 25 से 35 ग्राम वजन के साबुत कंद होने चाहिये। विभिन्न परिस्थितियों में एक हैक्टर भूमि में बुवाई के लिये 25 से 30 क्विंटल आलू के कंदो की आवश्यकता होती है। बुवाई से पूर्व बीज को स्ट्रेप्टोसाइक्लिन 0.1 प्रतिशत अथवा टोपसिन एम 0.2 प्रतिशत या बाविस्टीन 0.1 प्रतिशत के घोल से उपचारित करना चाहिये। उसके बाद बीजों को एजोटोबेक्टर कल्चर से उपचारित कर छाया में सुखाकर काम मेें लेना चाहिये।

आलू की बुवाई: आलू की मुख्य फसल को सितम्बर के अन्तिम सप्ताह से अक्टूबर के अन्त तक बो देना चाहिये। कोटा क्षेत्र में बुवाई का उपयुक्त समय अक्टूबर के अंतिम सप्ताह से नवम्बर के प्रथम सप्ताह तक है। बुवाई के समय मौसम हल्का ठण्डा होना चाहिये। बीज की मात्रा व बुवाई से पूर्व कन्दों को, 2 ग्राम थाइरम $ 1 ग्राम बाविस्टिन प्रति लीटर पानी के घोल में 20 से 30 मिनट तक भिगोयें तथा छाया में सुखाकर बुवाई करें।

आलू बोने की विधियाँ:
1. खेत में 45-45 सेन्टीमीटर की दूरी पर कतारें बनाकर 20 सेन्टीमीटर की दूरी पर 5-7 सेन्टीमीटर की गहराई पर आलू के कन्द बोयें। दो कतारों के बीच में हल चलाकर आलू को दबा देवें। इस प्रकार बोने से डोलियाँ बनाने का श्रम व खर्चा बचेगा।
2. पहले खेत में 15 सेन्टीमीटर ऊंची डोलियाँ बना लेवें और उसके एक तरफ या बीच में आलू के बीज को 5 से 7 सेन्टीमीटर गहरा बोना चाहिए।

फसल की सिंचाई : आमतौर पर आलू की फसल के लिये 10 से 15 सिंचाईयों की आवश्यकता होती है। लेकिन कोटा सम्भाग में पलेवा के अतिरिक्त 4 से 5 सिंचाईयाँ पर्याप्त रहती हैं। फसल के अंकुरित होते ही सिंचाई प्रारम्भ कर देना चाहिये। मैदानी भागों में जहाँ सर्दियों में बुवाई की गयी हो और तापमान अधिक हो या बलुई या बहुत हल्की मिट्टी हो तो अंकुरण के पूर्व भी सिंचाई करनी पड़ती है। सर्वप्रथम हल्की सिंचाई करनी चाहिये। इसके बाद सामान्य सिंचाई करते हैं। परन्तु किसी भी दशा में नालियों को तीन-चैथाई से ज्यादा नहीं भरना चाहिये। डोलियों पर पानी चढ़ जाने से उसका ऊपरी भाग कड़ा हो जाता है। इस कारण आलू की जड़ें भली-भांति नहीं फैलने से आलू समान रूप से नहीं बढ़ पाते। हल्की मध्यम दर्जे की बलुई मिट्टी में 7 से 10 दिन में तथा भारी मिट्टी में 10 से 15 दिन के बाद सिंचाई करनी चाहिये। जैसे-जैसे फसल पकती जाये सिंचाई का अन्तर बढ़ाते जायें। पकने से 15 दिन पूर्व सिंचाई बन्द कर देवें।

निराई-गुड़ाई: कंद की बुवाई के 30 से 35 दिन बाद जब पौधे 8 से 10 से.मी. के हो जावें तो खरपतवार निकाल कर मिट्टी चढ़ा देनी चाहिये। इसके एक माह बाद दुबारा मिट्टी चढ़ावें।

रासायनिक खरपतवारनाशी द्वारा नियन्त्रण: पैराक्वाट (1 किलो प्रति हैक्टेयेर) अर्ली पोस्ट इमरजेन्स (जब जमाव 5 प्रतिशत तक हो जाये) के रूप में छिड़काव करें।  या आइसोप्रोटोराॅन (1 किलो प्रति हैक्टेयेर) (प्री इमरजेंस) जमाव से पूर्व छिड़काव करें।
नोट:    खरपतवार नाशी का प्रयोग यदि खरपतवार की अधिक समस्या हो तो ही करें।

कीट प्रबंध:

मोयला एवं हरा तेला: ये आलू के महत्वपूर्ण कीट है तथा पत्तियों व टहनियों से रस चूस कर हानि पहुंचाते हैं। जब प्रकोप अधिक होता है तो पत्तियाँ नीचे की ओर मुड़ जाती हैं और पीली पड़कर सूख जाती हैं। ये कीट विषाणु रोग फैलाने में भी सहायक है। नियन्त्रण हेतु डाईमिथोएट 30 ई.सी. या मिथाइल डिमेटोन 25 ई.सी. 1 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी की दर से छिड़के।

कटवर्म (कटवा लट): इस कीट की लटें आलू के पौधों की शाखाओं व उगते हुए आलू को काटकर नुकसान पहुंचाती हैं। बाद की अवस्था में ये लटें आलू में छेद कर देती है जिससे उनका बाजार भाव कम हो जाता है, क्षतिग्रस्त खेतों में इससे 40 प्रतिशत तक की हानि होती है। इनकी लटें दिन में ढेलों में छिपी रहती है तथा रात के समय फसल को क्षति पहुंचाती है। नियन्त्रण हेतु बुवाई से पूर्व भूमि उपचार किया गया हो तो इस कीट के आक्रमण की सम्भावना नही रहती है। खड़ी फसल में इस कीट की रोकथाम हेतु क्लोरोपायरीफाॅस 20 ई.सी. चार लीटर प्रति हैक्टर की दर से सिंचाई के साथ प्रयोग करें।

सफेद लट: ये लटें जमीन में रहकर पौधों की जड़ों को क्षति पहुंचाती है तथा आलू में उथले छेद कर देती हैं। जिन क्षेत्रों में इस कीट का आक्रमण बना रहता है वहाँ इनके नियन्त्रण हेतु बुवाई के समय कार्बोयूराॅन 3 जी या फोरेट 10 जी 25 किलो प्रति हैक्टर की दर से भूमि में मिलावें।

व्याधि प्रबंध:

काली रूसी: इस रोग के कारण अंकुरित कन्दों का अग्र भाग प्रभावित होता है जो कभी-कभी उगने से पूर्व ही नष्ट हो जाता है सभी कन्दों के समय से अंकुरित नहीं होने से पौधों की संख्या में कमी आ जाती है। अंकुरित पौधों के तने पर धंसे हुए भूरे रंग के कंकर दिखाई देते है। ग्रसित पौधें बौने रह जाते है । विकसित कन्दों पर (काली रूसी के रूप में) रोग के कारण कवक की वृद्धि, कन्द की त्वचा में धंसी हुई दिखाई देती है। यह रोग ग्रसित बीजों के माध्यम से फैलता है। नियन्त्रण हेतु बुवाई से पूर्व बीज के लिये प्रयोग में लाये जाने वाले कन्दों को 3 प्रतिशत बोरिक एसिड (30 ग्राम प्रति लीटर पानी) के घोल में 30 मिनट तक डुबोयें। इस घोल को 20 बार प्रयोग में लाया जा सकता है। घोल हल्के गरम पानी में बनायें।

मृदु गलन: यह रोग जीवाणु द्वारा फैलता है तथ इस रोग से आलू नर्म पड़ जाते हैं एवं दुर्गन्ध आने लगती है। इसका प्रसार दागी आलुओं के द्वारा होता है। यदि ढेर में ऐसे रोग ग्रस्त आलू आ जावें तो वे स्वस्थ आलूओं को भी शीघ्र सड़ा देते है। नियन्त्रण हेतु रोगग्रस्त आलुओं को बाहर निकाल देना चाहिये। उसके बाद ढेरी लगानी चाहिए। बुवाई के पूर्व आलू को 1 ग्राम बाविस्टीन प्रति लीटर पानी के घोल से उपचारित करें।

अगेती झुलसा: इस बीमारी का प्रकोप शुरू में कन्द बनने से पहले होता है। पहले भूरे धब्बे पत्तियों पर दिखाई देते हैं जो बाद में गहरे भूरे होकर काले धब्बे में बदल जाते हैं। धब्बे में छल्ले नुमा धारियाँ दिखाई देती हैं। कभी-कभी कन्दों व शाखाओं पर भी भूरे से काले रंग के धब्बे दिखाई देते है तथा कन्दों का सड़ना भी देखा गया है। इस रोग से निचली पत्तियाँ सूखने लगती हैं तथा गिरने लगती हैं। मैन्कोजेब 2.5 ग्राम  प्रति लीटर 45, 60 और 75 दिन पर छिड़काव करें।

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