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पपीते की उन्नत बागवानी

द्वारा, दिनांक 26-08-2019 11:02 AM को 438

पपीते की उन्नत बागवानी

जलवायु: पपीते की सफल खेती के लिए उच्च तापक्रम, मृदा में कम आर्द्रता एवं वातावरण में पर्याप्त नमी होनी चाहिए। इसके लिए पाला (10 से॰ग्रे॰) से कम तापक्रम बहुत हानिकारक है। इसके अधिक उत्पादन के लिए 22-26 डिग्री से.ग्रे. तापक्रम अच्छा रहता है।

भूमि: पपीते के लिए उत्तम जल निकास युक्त उपजाऊ दोमट मिट्टी अच्छी रहती है। भूमि की गहराई कम से कम 45 सेन्टीमीटर तथा पी एच मान 6.5 से 7.5 के बीच होनी चाहिए। इसकी खेती मघ्य काली और जालोढ़ भूमि में भी आसानी से की जा सकती है। चिकनी मृदा में बालू मिलाकर इसके पौधे लगाये जा सकते है।

उन्नत किस्में: हनीड्यू, कुर्ग हनीड्यू, वाशिगंटन कोयम्बटूर -1, को.-2, को.-3, को.-4   को.-5, को.-6, पंजाब स्वीट, पूसा डेलिसियस, पूसा मेजेस्टी, पूसा जाइन्ट, पूसा ड्वार्फ, पूसा नन्हा, सूर्या, रेडलेडी आदि।

बीज की मात्रा, बीजोपचार एवं बुवाई : एक हैक्टर में पपीता लगाने के लिए 500 ग्राम बीज की आवश्यकता होती है। बोने से पूर्व बीजों को 3 ग्राम केप्टान प्रति किलोगा्रम बीज के हिसाब से उपचारित करना चाहिए। बीजों की बुवाई करने से पूर्व नर्सरी भूमि का उपचार करना अतिआवश्यक होता है जिससे सभी कवक नष्ट हो जायें। इस कार्य के लिए फारमेल्डिहाइड के 2.5 प्रतिशत घोल से निर्जर्मीकृत करके पाॅलिथीन सीट से 4-6 घण्टों के लिए ढक देना चाहिए। फारमेल्डिहाइड का उपचार बीज बुवाई से लगभग 15 दिन पहले करना चाहिए। पपीते की उभयलिंगी संकर किस्म के 50-100 ग्राम बीज प्रति हैक्टर आवश्यक हैं।

पपीते की पौधों का कठोरीकरण : पपीते के पौधे अधिक कोमल होने के कारण स्थान्तरण के समय पौध मर जाती है। इसे बचाने के लिए नर्सरी अवस्था में छोटे पौधों का कठोरीकरण करना अति उत्तम रहता है। कठोरीकरण के लिए जब बीज अंकुरित हो जाए और पौधों में पहली दो पत्तियाँ निकल जाएं तो उन्हें बड़ी क्यारियों या अलग-अलग गमलों में या पाॅलीथिन की थैलियों में लगा देते है। इन पौधों को 15 X 15 से.मी. की दूरी पर लगाकर हल्की सिंचाई कर देते हैं तथा पौधों को हल्की छाया में रखना चाहिए। छाया को धीरे-धीरे करके रोपाई के 15-20 दिन बाद हटा देना चाहिए तथा बीच-बीच में पौधों को पानी की कमी का एहसास करवाना चाहिए। जब पौधे लगभग 10-15 से.मी. के हो जायें उन्हें 12 X  25 से.मी. आकार की पाॅलिथीन की थैलियों में अथवा मुख्य खेत में स्थानान्तरित  कर देना चाहिए। थैलियों में लगाये पौधे को दूर-दराज के खेतों में भेजने में आसानी रहती है।

पौध रोपण: पौधे लगाने के एक माह पूर्व खेत में मिट्टी पलटने हल से जुताई करके खुला छोड देना चाहिए। इसके पश्चात् देशी हल से जुताई करके पाटा चलाकर भूूमि को समतल एवं भुरभरी बनाने के बाद सम्पूर्ण खेत मे 2.5 X  2.5 मीटर की दूरी पर 45 X  45 X 45 से.मी. आकार के गड्ढ्रे बनाकर प्रत्येक गड्ढे में 10 किलोग्राम सड़ी हुई गोबर की खाद, 250 ग्राम एन. पी. के., 500 ग्राम जिप्सम, 150 ग्राम जियाम खाद, 2 किलोग्राम वर्मी कम्पोस्ट, 50 ग्राम क्यूनालफाॅस का व चूर्ण मिलाकर गड्ढों की भूमि से 10-12 से.मी. ऊँचाई तक भर कर अच्छी सिंचाई कर देनी चाहिए। इसके 4-5 दिन बाद थैली के आकार का छोटा गड्ढा बनाकर गड्ढे में पौध रोपण करना चाहिए। पौध रोपण सामान्यतया संघ्या व कम तापमान वाले दिनों में करना चाहिए। पौध रोपण के तुरन्त बाद सिंचाई कर देनी चाहिए। इसके बाद जब तक पौधे अच्छी तरह विस्थापित नहीं हो जाते हंै, तब तक प्रतिदिन दोपहर के बाद हल्की सिंचाई करनी चाहिए।

सिंचाई और निराई-गुड़ाई : पपीता उथली जड़ का पौधा होने के कारण ठीक समय में पानी खाद और कर्षण कार्य करने से उत्पादन में वृद्धि होेती है। सर्दियों में 10-15 दिन तथा गर्मियों में 6-7 दिन के अन्तर पर पानी देना चाहिए। यह ध्यान रखना चाहिए कि तना पानी के सीधे सम्पर्क में नहीं आयेे इसके लिए तने के पास मिट्टी ऊँची रखनी चाहिए ताकि उचित जल निकास हो सके। खरपतवारों को नष्ट करने के लिए प्रतिमाह हल्की गुड़ाई करनी चाहिए।

फलों का विरलीकरण : अगर फलों के गुच्छे में ज्यादा फल लगे हो तो उनकी उचित बढ़वार नही हो पाती है। इसके लिए अच्छे आकार के फल लेने के लिए बीच-बीच से फलों को निकाल कर एक गांठ पर दो-दो फल विपरीत दिशा में छोड़ना चाहिए जिससे फलों का आकार एवं गुणवत्ता बढ़ जाती है।

पाले से पौधों की रक्षा: पपीते के पौधों पर पाले का विशेष प्रभाव पड़ता है। छोटे पौधों को पाले से बचाने के लिए नवम्बर के अन्त में तीन तरफ फूँस एवं मँजे की टाटी लगाकर अच्छी प्रकार से ढक देना चाहिए। पूर्व दक्षिण दिशा को थोड़ा खुला छोड़ देना चाहिए। पाले की सम्भावना होने पर बागों में सिंचाई एवं रात्रि में धुंआ करना चाहिए।

फलन और उपज: पपीते के पौधे लगाने के 10-14 महीने उपरान्त पके हुए फल प्राप्त होने लगते हैं। उत्तरी भारत के मैदानी भागों में पके हुए फल प्राप्त होने लगते हैं। उत्तरी भारत के मैदानी भागों मे पके हुए फल बसन्त से गर्मियों तक तोड़ने योग्य रहते हैं। पपीते से प्रति पौधा 60 से 70 किलोग्राम उपज प्राप्त हो सकती है।

पपीते में कीट एवं रोग:

सफेद मक्खी - इनके नियन्त्रण हेतु डायमिथोएट 30 ई.सी. एक मि.ली. प्रति लीटर पानी के हिसाब से छिड़काव करना चाहिए।

जड़ गाँठ रोग - नियन्त्रण के लिए नर्सरी क्षेत्र में कार्बोयूरान-3 जी या निमागान 10 ग्राम प्रति वर्गमीटर के हिसाब से मिलाना चाहिए। मुख्य खेत में प्रति गड्ढे में 5 ग्राम दवा डालनी चाहिए।

तना गलन - ग्रसित पौधों का तना सड़ जाता है।
1.     पौधे मे जल निकास की पूर्ण व्यवस्था रखें तथा तने के पास पानी भराव को रोकें।
2.     ग्रसित पौधों को तुरन्त उखाड़कर नष्ट कर देवें।
3.     ग्रसित हिस्से को खुरचकर काॅपर आॅक्सीक्लोराड पेस्ट लेप करना चाहिए।
4.    तने के आस पास मिट्टी ऊँची रखनी चाहिए। पपीते का बाग साफ-सुथरा रहे इसके लिए समय-समय पर पेड़ों के चारों तरफ हल्की गुड़ाई अवश्य करनी चाहिए।

पर्ण कुंचन - यह बीमारी वायरस से होती है तथा एफीड व सफेद मक्खी बीमारी फैलाते हैं। ग्रसित पौधों की पत्तियाँ आकार में छोटी, कुंिचत, विकृत व सिकुड़न लिये मोटी शिराओं वाली हो जाती हैं। पत्तियाँ प्यालेनुमा व पर्णवृन्त टेढ़े-मेढ़े हो जाते हैं औेर पेड़ों पर फल और फूल नहीं लगते हैं।

आर्दगलन रोग - यह नर्सरी का बड़ा ही गंभीर रोग है। इसका आक्रमण नव अंकुरित पौधों में होता है। इस रोग में पौधों का तना जमीन के पास से सड़ जाता है और मुरझा कर गिर जाता है। प्रायः छोटे पौधे पर ही इसका आक्रमण अधिक होता है, बडे़ होने पर पौधे इसके लिए प्रतिरोधी हो जाते है। यह रोग गर्म एवं आर्द वातावरण में तथा पौधे काफी घने होने लगें हो तो अधिक होता है।
रोकथाम:
1     बीज को थायरम से 3 ग्राम प्रति किलोग्राम की दर से उपचारित करके बोना चाहिए।
2     जल निकास का अच्छा प्रबन्धन करना चाहिए।
3     घने तथा अनावश्यक पौधों को पौधशाला से निकाल देना चाहिए।
4     एक-एक सप्ताह के अन्तर पर कवक नाशी (ब्लाईटोक्स) छिड़काव करना चाहिए।

एन्थ्रेक्नोज: इसका आक्रमण तना, पत्तियों और फलों पर होता है। इसके कारण भूरे रंग के लम्बे धब्बे बन जाते हैं। वातावरण में आर्द्रता बढ़ने पर धब्बे तीव्र गति से बढ़कर एक-दूसरे में मिल जाते हंै, जिसके कारण फल सड़ जाते हैं। पहले छोटे और पनीले धब्बे निकलते हैं। जैसे ही कवक फल के अन्दर बढ़ने लगती है, फलों से दूध निकलता है जो चिपचिपा-सा ढीला बना देता है।
रोकथाम:
1  रोगी पौधों पर ब्लाइटाॅक्स-50 (0.15 प्रतिशत) का छिड़काव करना चाहिए।
2  1 किलोग्राम डाइथेन एम-45 प्रति 500 लीटर पानी वाले घोल के छिड़काव से काफी अच्छी रोकथाम होती है।

मोजेक रोग - ग्रसित पौधों की पत्तियाँ छोटी तथा सिकुड़ जाती हैं तथा रोग ग्रस्त पत्तियों पर फैले हुए दाग पड़ जाते हैं। पौधे पर फूल-फल नहीं बनते हैं। कुछ समय में पौधा मर जाता है। यह बीमारी मोजेक से होती है तथा एफिड द्वारा फैलती है।
रोकथाम:
1     सभी रोग ग्रस्त भागों तथा सम्पूर्ण पौधे को जलाकर नष्ट कर देना चाहिए।
2     रोग को फैलने से रोकने के लिए 250 मि.ली. मैलाथियाॅन 50 ई.सी. 250 लीटर पानी में घोलकर 15 दिन के अन्तर पर तीन छिड़काव करने चाहिए।
3     पपीते के बाग में रोग फैलने की दशा में अन्तशस्य फसल नहीं लेवें और बगीचे को पूर्ण साफ रखना चाहिए।

फल विगलन रोग - यह रोग सामान्यतया भण्डार गृहों तथा विपणन के समय उत्पन्न होता है। ग्रसित फल मुलायम पड़ जाते हैं तथा इनमें पनीला सड़न पैदा हो जाता है, कभी-कभी फलों पर काले रंग के धब्बे बन जाते हैं। अधिक आर्द्रता युक्त गर्म स्थानों पर यह रोग तीव्रता से फैलता है।
रोकथाम:
1     फलों का संग्रहण करते समय फल की सतह पर किसी प्रकार की क्षति नहीं आनी चाहिए।
2     फलों को भण्डारण से पूर्व 20 मिनट के लिए 46 से 49 डिग्री से. तक गर्म पानी में डूबाने से कवक नष्ट हो जाती है।
3     ग्रसित फलों को भण्डारण कक्षों से निकाल कर नष्ट कर देना चाहिए।

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