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रजनीगंधा की आधुनिक खेती

द्वारा, दिनांक 26-08-2019 01:01 PM को 700

रजनीगंधा की आधुनिक खेती

किसान भाई एवं बहनें ग्रीष्मऋतु में रजनीगंधा की बुवाई का कार्य शुरू करके कम लागत में अधिक आय प्राप्त कर सकते है। फरवरी-मार्च माह  रजनीगंधा की बुवाई के लिये उपयुक्त है। अलंकृत कन्दीय पौधों में रजनीगंधा टयूबरोज (पोलिएन्था टयूबरोजा) का विशिष्ट एवं महत्वपूर्ण स्थान है।  इसे गुलचारी और गुल शब्बों के नाम से भी जाना जाता है। इसका जन्मस्थल मैक्सिकों देश है तथा यह एमेरलिडेसी परिवार का पौधा है। इसको गमलों, क्यारियों और बॉर्डर पर उगाया जाता है। आज विश्व भर में फूलों की मांग दिन प्रतिदिन बढती जा रही है ऐसे में फसल विविधिकरण को अपनातें हुए सामान्य फसलों की बजाय फूलों की खेती की ओर रूख करना चाहिए। फूलों की खेती करके कृषक कम समय में अधिक मुनाफा आसानी से कमा सकता है। राजस्थान की भौगोलिक दशा एवं जलवायु के अनुसार यहां विभिन्न फूलों की खेती की जा सकती है। रजनीगंधा एक सुगंधित कर्तित पुष्प है। इसका उपयोग मुख्य रूप से कट फ्लावर्स, बुके बनाने में एवं शोभाकारी उद्यानों के लिये किया जाता है। इसके पुष्प पुष्पडंडी पर लगते है, जो सफेद रंग के होते है। इसके पुष्पों से सुगंधित तेल भी निकाला जाता है जो सौंदर्य प्रसाधन के उत्पादन में काम में लिया जाता है। रजनीगंधा की मुख्य रूप से दो प्रकार की किस्में होती है, डबल पुष्प और सिंगल पुष्प वाली किस्में। जिनमें से डबल पुष्प वाली किस्मों का उपयोग कट फ्लावर्स एवं प्रदर्शनी हेतु किया जाता है जबकि सिंगल पुष्प वाली किस्में सुगंधित तेल एवं सजावट के लिये उपयुक्त रहती है। कट फ्लावर्स मध्य-पूर्वी देशों को मुम्बई से निर्यात किया जाता है, जिससें विदेशी मुद्रा अर्जित की जाती है।

जलवायु :- रजनीगंधा की खेती वर्षभर आसानी से की जा सकती है तथा सभी प्रकार की जलवायु में आसानी से उगाया जा सकने वाला पौधा है परन्तु शीतोष्ण एवं सम शीतोष्ण जलवायु उपयुक्त रहती है। पौधे की अच्छी बढवार एवं अधिक पुष्पन के लिए मुख्यतया नम जलवायु की आवश्यकता होती है। इसकी खेती सर्दी/गर्मी/वर्षा तीनों मौसम में आसानी से की जा सकती है। उच्च तापमान अधिक ठण्ड एवं पाला फसल पर विपरीत प्रभाव डालता है।

मृदा  :- रजनीगंधा की फसल से अधिक उपज प्राप्त करने के लिए अच्छी जल निकास वाली गहरी दोमट मृदा तथा बलूई दोमट मृदा जिसका पी एच मान 6.5 से 7.5 के मध्य सर्वोत्तम रहती है।

खेत की तैयारी :- खेत की अच्छी तैयारी लिये खेत की 3 से 4 गहरी जुताई करनी चाहिये तथा जुताई के पश्चात खेत को पाटा चलाकर समतल कर लेना चाहिये। अंतिम जुताई के समय 10 से 12 टन भली प्रकार सडी हुई गोबर की खाद प्रति हैक्टेयर की दर से खेत में डालनी चाहिये। खेत में सिंचाई के लिये सुविधानुसार क्यारियां बना लेनी चाहिये। पुष्पों की अच्छी उपज लेने के लिये खाद के साथ-साथ संतुलित मात्रा में उर्वरकों का प्रयोग करना भी अत्यंत आवश्यक होता है इस हेतु 200 किलोग्राम यूरिया, 400 किलोग्राम सुपर फॉस्फेट, 100 किलोग्राम म्यूरेट ऑफ पोटाश प्रति हैक्टेयर की दर से मुख्य रूप से खेत में प्रयोग किया जाना चाहिये। सडी हुई गोबर की खाद, सुपर फॉस्फेट व म्यूरेट ऑफ पोटाश की सम्पूर्ण मात्रा तथा युरिया की आधी मात्रा रोपाई के पूर्व खेत में प्रयुक्त की जानी चाहिये।

उन्नत किस्में :- ये मुख्यतया चार प्रकारों में विभाजित है, जो निम्नलिखित प्रकार से है -

1. सिंगल फ्लावर्स :- सिंगल टाइप के फूलों में अपेक्षाकृत अधिक सुगंध होती है तथा इसकी खेती अन्य टाइप से अधिक की जाती है। एकल पुष्प हेतु उपयुक्त किस्में - कलकत्ता सिंगल, मैक्सिन सिंगल, श्रृंगार, प्रज्जवल।

2. सेमी डबल फ्लावर्स

3. डबल फ्लावर्स :- डबल रजनीगंधा के पुष्पक पूर्णरूप से नही खुल पाते है, जिसके परिणामस्वरूप उनकी सुगंध में कमी होती है। दोहरा पुष्पन हेतु उपयुक्त किस्में - रजत रेखा, स्वर्ण रेखा, सुवासिनी, पर्ल डबल।

4. सिंगल वेरीगेटिड लीव्ज सिंगल

प्रवर्धन :- रजनीगंधा का प्रवर्धन शल्क कंदों के माध्यम से किया जाता है। दो से ढाई सेंटीमीटर व्यास वाले रजनीगंधा के शल्क कंद रोपाई के लिये उपयुक्त रहते है जिन पर पुष्प डंडी बन जाती है। तैयार खेत या क्यारी में शल्क कंदों की रोपाई करनी चाहिये जिस के लिये कतार से कतार की दूरी 30 सेंटीमीटर तथा पौधें से पौधें की दूरी 20 सेंटीमीटर रखी जानी चाहिये। शल्क कंदों की रोपाई के लिये गहराई 4 से 5 सेंटीमीटर तक रखनी आवश्यक है। शल्क कंदों की रोपाई फरवरी-मार्च माह में करनी चाहिये।

पौध तैयार करना :- रजनीगंधा की पौध तैयार करने के लिए भूमि की सतह से 15 सेमी. उँची बीज शैया तैयार करे जिससे आवश्यकता से अधिक जल का निकास संभव हो सके। बीज शैया  की चौड़ाई 1 मी. तथा लम्बाई आवश्यकतानुसार रखें। बीज बूवाई से पूर्व बीजापचार आवश्यक रूप से करे जिससे पौध को कम अवस्था में होने वाले रोगो जैसे आर्द्रगलन, जड़ गलन से बचाव किया जा सके । बीजोपचार के लिए 0.2 प्रतिशत केप्टान अथवा बाविस्टीन का उपयोग करे।

कंदो की रोपाई :- जब पौधे की लम्बाई 15 सेमी. के लगभग हो जाये तथा उसे 4 पतियाँ निकल आये तब पूर्व में तैयार क्यारियों में स्वस्थ पौध की रोपाई कर देनी चाहिए। रोपाई के पश्चात हल्की सिंचाई अवश्य करनी चाहिए। प्रति हैक्टेयर 2,50,000 कंदो की आवश्यकता होती है। कंदो को रोपने से पूर्व ब्लाइटॉक्स नामक दवा से उपचारित करके बोना चाहिये, ताकि फफूंदी वाले रोगों से कंदों को बचाया जा सके।

खाद एवं उर्वरक :- गोबर की अच्छी सडी हुई खाद 200 से 250 क्विंटल प्रति हैक्टेयर की दर से खेत की तैयारी के समय खेत में डाल देनी चाहिये। इसके अतिरिक्त 200 किलोग्राम फॉस्फोरस तथा 200 किलोग्राम पोटाश प्रति हैक्टेयर की दर से कंदो की रोपाई के समय खेत में डालनी चाहिये। नत्रजन की 150 किलोग्राम मात्रा रोपाई के एक माह पश्चात तथा 150 किलोग्राम नत्रजन प्रति हैक्टेयर दो माह पश्चात खेत में दे कर सिंचाई कर देनी चाहिये।  

सिंचाई :- रजनीगंधा के पौधों की उचित बढवार हेतु सिंचाई एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। एक सिंचाई कंदों को रोपने से पूर्व कर देनी चाहिये। तत्पश्चात कंदो को रोपने के उपरांत तब तक सिंचाई नही करनी चाहिये जब तक कंदों का फूटान न हो जाये। यदि फूटाव के समय खेत में अधिक पानी देने पर कंदों के सडने की संभावना बढ जाती है।सामान्यतया सर्दी के मौसम में 12 से 15 दिवस के अंतराल पर तथा ग्रीष्म ऋतु में 6 से 8 दिवस के अंतराल पर सिंचाई करनी चाहिए।

खरपतवार नियंत्रण :- खरपतवार मुख्य फसल के साथ नमी पोषण एवं रोशनी के लिये प्रतियोगी की जिम्मेदारी निभाते है जिससे पौधों की उपज एवं गुणवत्ता पर विपरीत प्रभाव पडता है साथ ही खरपतवार अनेक कीटों एवं व्याधियों की शरणस्थली होते है अत 3 से 4 बार अच्छी निराई गुडाई करके खरपतवारों को खेत से उखाड लेवें। आवश्यकता पडने पर रासायनिक नियंत्रण द्वारा खरपतवार हटायें जा सकते है। खरपतवारनाशी/शाकनाशी का भी आवश्यकतानुसार प्रयोग किया जा सकता है।

मुख्य कीट एवं रोकथाम :-

1. रेड स्पाइडर माईट (लाल माईट) :- माईट आठ पैर वाला जीव है जो कीटों से भिन्न होता है। इसके शिशु एवं वयस्क कोमल पत्तियों तथा नरम वृद्धि वाले भागों से रस चूस कर पौधें को नुकसान पहुचाते है। समय पर नियंत्रण नही करने पर आर्थिक स्तर पर हानि होत इसके नियंत्रण के लिये 0.2 प्रतिशत मेलाथियान या 0.2 प्रतिशत मेटासिस्टॉक्स का छिडकाव करें। इसके अलावा डाईकोफॉल 17.5 ईसी 10 मिली. अथवा मिथाईल डिमेटॉन 25 ईसी. 10 मिली. प्रति 10 लीटर पानी में मिला कर तने तथा पत्तियों पर छिडक कर इस को समाप्त किया जा सकता है।

2. चेपा/माहू :- ये कीडे हरे रंग के होते है तथा पत्तों की निचली सतह से रस चूसकर काफी मात्रा में हानि पहुँचाते है। ये कीडे विषाणु रोग भी फैलाते है। इसकी रोकथाम के लिये 300 मिली. मेटासिस्टॉक्स 25 ईसी. अथवा डाईमेथोएट 30 ईसी. को 200 से 300 लीटर पानी में घोलकर प्रति हैक्टेयर छिडकाव करें। आवश्यकतानुसार 10 से 15 दिन के अंतराल पर अगला छिडकाव करे।

3. थ्रिप्स :- ये पत्तियों, फूलों के तनों और फूलों को अत्यधिक नुकसान पहुचाते है। ये बंचीटॉप नामक संक्रामक रोग को फैलाने में भी सहायक होते है। इस रोग की रोकथाम के लिये 0.1 प्रतिशत डाईमिथोएट अथवा 0.1 प्रतिशत मैलाथियॉन का छिडकाव करना चाहिये।

4. भृंग/वीविल :- इसके प्रौढ अंधेरा होने पर सक्रिय हो जाते है, ये प्ररोहो, पत्तियों के कोमल भाग तथा कलिकाओे को खाते है। इसके डिंभक (लार्वा) जडों को खाते है और फिर सुरंग बनाकर कंदों में प्रवेश कर जाते है। इसकी रोकथाम हेतु कार्बोफ्यूरॉन अथवा फोरेट 10 जी का बुरकाव करना चाहिये।

5. टिडडा/ग्रासहोपर :- यह कीट कोमल पत्तियों तथा कलियों को खाता है। इसकी रोकथाम के लिये 15 दिन के अंतराल पर  0.1 प्रतिशत डाईमिथोएट अथवा 0.1 प्रतिशत मैलाथियॉन का छिडकाव करना चाहिये।

प्रमुख व्याधियाँ एवं रोकथाम :- 

1. आर्द्र गलन रोग :-यह बिमारी नर्सरी में पौध तैयार करते समय आती है। इस बिमारी के प्रकोप से रोगग्रस्त पौधे का तना गलने लगता है और शीघ्र ही नष्ट हो जाता है। रोगग्रसित पौधों को जड सहित उखाड कर नष्ट कर देना चाहिये। इस रोग की रोकथाम करने के लिए 0.2 प्रतिशत कैप्टान अथवा बाविस्टिन के घोल से ड्रेंचिंग करें।

2. छाछया रोग (पाउडरी मिलडयू) :- यह रोग इरीसाइफी पॉलीगोनी नामक कवक द्वारा होता है। यह इस फसल का मुख्य रोग है जिससे किसान को अत्यधिक हानि होती है। इस रोग के प्रकोप से फसल पर सफेद चूर्ण धब्बे दिखाई देते हैं, बाद में पत्तियां पीली पडकर गिरने लगती है। इसके नियन्त्रण हेतु प्रति हैक्टेयर 25 किलोग्राम गन्धक चूर्ण का भुरकाव करना चाहिये अथवा 2 ग्राम घुलनशील गन्धक या 1 मिलीलीटर कैराथियॉन एल सी या कैलेक्सिन एक मिलीलीटर प्रति लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करें। यह छिड़काव 10 दिन के अन्तराल पर 2 या 3 बार आवश्यकतानुसार दोहराना चाहिये।

3. पत्ती धब्बा एवं झुलसा रोगः- इस रोग से ग्रसित पौधें की पत्तियों के निचले हिस्सों पर भूरे रंग के धब्बें बनना प्रारम्भ होते है जो शीघ्र ही बढकर गहरे होने लगते है जिसके फलस्वरूप पौधों की वृद्धि में नकारात्मक प्रभाव पडने लगता है। ग्रसित पौधे झुलसे हुए प्रतीत होते है। इस रोग की रोकथाम के लिये डायथेन एम के 0.2 प्रतिशत घोल का 15 से 20 दिवस के अंतराल पर छिडकाव करें।

4. जड गलन रोग :- इस रोग से या तो बीज सड जाते है या बीज उगने के पश्चात पौधें अधिक वृद्धि नही कर पाते और नष्ट हो जाते है। इस रोग से बचाव हेतु  बीजों को बुवाई से पूर्व थाइराम या कैप्टान या बाविस्टीन दवा से  2.5 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करना चाहिये।

5. पुष्प कलिका सडन :- यह रोग इरविनिया प्रजाति के जीवाणुओ के द्वारा फैलता है। इस रोग के लक्षण सामान्यतया छोटी कलिकाओं पर प्रकट होते है। ये कलिकायें कुछ समय पश्चात सड जाती है। इसकी रोकथाम हेतु रोगग्रस्त पौधों को निकालकर अलग कर देना चाहिये तथा कम संक्रमित पौधों पर 1000 लीटर जल में 1 भाग कोरोसिव सब्लिमेंट का घोल बनाकर छिडकाव करना चाहिये।

6. बोट्रिटीस स्पॉट एण्ड ब्लाइट :- यह रोग बोट्राइटिस इलिप्टिका के द्वारा होता है। यह पत्तियों को अत्यधिक नुकसान पहुचाता है। इस रोग के नियंत्रण हेतु पौधों पर (1.) अमोनिकल कॉपर 2.0 लीटर प्रति 100 लीटर पानी  (2.) ग्रीनो तथा (3.) ओ-हाइड्रोक्सी डाईफिनाइल (1ः200) के सोडियम लवण का छिडकाव 15 दिन के अंतराल पर दोहराते रहना चाहिये।

कन्दों की कटाई :- कन्दो की रोपाई के 90 से 95 दिन के पश्चात पुष्प डंडिया काटने योग्य हो जाती है। पूर्ण विकसित पुष्प् डंडी को तेज धार वाले चाकू से सुबह या शाम के समय काट कर साफ पानी में भरी प्लास्टिक की बाल्टी में रख लेनी चाहिये। पूर्ण रूप से खिलें पुष्पों की सुबह जल्दी अथवा शाम के समय तुडाई करे जिससे पुष्प अधिक समय तक खिलें हुए ताजा एवं स्वस्थ रहे। पौधों की रोपाई करने के 3 से 4 माह पश्चात पुष्प खिलने प्रारम्भ हो जाते है। हर चौथै रोज पुष्पों की तुडाई करते रहने से पुष्पन में निरन्तरता बनी रहती है। पुष्प चुनते समय यह ध्यान रखना अतिआवश्यक है कि सभी पुष्प पूर्ण विकसित पुष्प तथा डोडे पौधें पर नही छूटने चाहिये। 

कन्दों की खुदाई :- कन्दो की रोपाई के पश्चात इन कंदों के द्वारा लगभग तीन वर्ष तक पुष्पडंडियों की पैदावार ली जा सकती है। तीन वर्ष के पश्चात इन कंदों की खुदाई कर के 0.2 प्रतिशत बाविस्टीन के घोल से उपचारित कर के ठंडी एवं सुखी जगह पर संग्रहित कर लेना चाहिये।

कटाई पश्चात प्रबंधन :- कर्तित पुष्पों को कटाई के तुरन्त पश्चात पानी में रख देना चाहिये साथ ही इन पुष्प् डंडियों की जीवन क्षमता बढाने के लिये 5 प्रतिशत शर्करा तथा 300 पी. पी. एम. एल्यूमिनियम सल्फेट के घोल से उपचारित करना चाहिये। कर्तित पुष्पों की स्पाईक की लम्बाई, पुष्प दण्डिका पर पुष्पों की संख्या तथा पुष्प् दण्डिका के वजन के आधार पर रजनीगंधा को श्रेणीकृत कर लेना चाहिये तथा भिन्न - भिन्न श्रेणीयों के आधार पर वर्गीकृत रजनीगंधा को पैक कर लिया जाना चाहिये। 

पैकिंग :- बाजार में भेजने के लिये ताजा तोडे गये पुष्पों को सेलोफिन स्ट्रिप में तथा बांस की टोकरियों में अच्छी तरह से पैक करके तथा पुष्प दण्डिकाओ को सौ-सौ के बण्डल बनाकर कॉरूगेटेड कार्डबॉर्ड बक्सों, लाइनर अथवा अखबार में लपेट कर बिक्री स्थल पर भेजना चाहिये, जिससे अच्छी आमदनी प्राप्त की जा सके।

उपज :- उचित देखभाल के फलस्वरूप 4 से 6 क्विंटल प्रति हैक्टेयर उपज आसानी से प्राप्त की जा सकती है।


शकुंतला पालीवाल
सहायक कृषि अधिकारी, 
कृषि विभाग, उदयपुर

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