निरन्तर बढते रासायनिक उर्वरको के प्रयोग से मृदा की भौतिक, रासायनिक एवं जैविक संरचना में असंतुलन की स्थिति बनी है, जो कि मृदा के स्वास्थ्य में निरन्तर हो रही गिरावट का प्रतीक है। तथा मृदा में सुक्ष्मविधियों में भी कमी हुई है, इसी के साथ कृषक द्वारा लगातार तीनों फसले लेने से भी मृदा जीवांश पदार्थ एवं पोषक तत्वों की लगातार कमी हुई है। इस समस्या को दूर करने में हरी खाद एक बेहतर एवं सस्ता विकल्प है जिसके द्वारा मृदा में जीवांश पदार्थो की मात्रा एवं पौषक तत्वों की स्थिति को पुनः अच्छे स्तर पर लाया जा सके। दलहनी अथवा अदलहनी फसलों को पुष्पावस्था के समय जुताई करके खेत में दबा दिया जाता है, इस प्रकार से बनी खाद हरी खाद कहलाती है। हरी खाद के प्रयोग से मृदा की रासायनिक, भौतिक एवं जैविक दशाओं पर अनूकुल प्रभाव पड़ता है। साथ ही सुक्ष्मजैविक गतिविधियों में भी बढोतरी होती है। हरी खाद अपेक्षाकृत सस्ती तथा मृदा उर्वरता को बढाने के लिए उपयुक्त जीवांश खाद है। हरी खाद के लिये उपयुक्त फसल में आपेक्षित गुण निम्नानुसार होने चाहिए-
1. फसल कम अवधि की हो।
2. शीघ्र बढने वाली हो ।
3. फसल कम उपजाउ भूमि में भी आसानी से उगाई जा सकती है।
4. फसल को उगाने में लागत मूल्य कम से कम हो
5. फसल में किट एवं बिमारियों का प्रकोप न्यूनतम हो
6. विषम परिस्थितियों में भी आसानी से बढवार हो।
7. फसल को कम से कम पानी की आवश्यकता हों।
8. मुख्यतया फसल दलहनी प्रकार की हो जिससे मृदा में नाइट्रोजन का स्थिरिकरण आसानी से हो सके।
9. फसल की वानस्पतिक बढवार अच्छी हो।
हरी खाद के लिये उपयुक्त फसले:-
हरी खाद बनाने के लिये दलहनी तथा अदलहनी दोनो प्रकार की फसलो का प्रयोग किया जा सकता है परन्तु हमारे देश में मुख्य रूप से दलहनी फसलो को ही काम में लिया जाता हे, जो निम्नानुसार है-
1. सनई
2. ढेचा
3. ग्वार
4. लोबिया
5. बरसीम
6. मूंग
7. उड़द
1. सनई:- भारी मृदा एवं जल प्लावित दशा में इसका प्रयोग बेहतर होता है। बीज दर 50 - 60 किग्रा./हे. प्रयोग की जाती है। बुवाई के 6 - 8 सप्ताह पश्चात इसे मिट्टी में पलट दिया जाता है।
2. ढेंचा:- हरी खाद के रूप में ढेंचा अधिक आकांक्षित फसल है, भारी मृदा, जल प्लावित दशा, ऊसर भूमि के सुधार में इसका प्रयोग किया जाता है, बीजदर 60 - 80 किग्रा./हे. प्रयोग में ले जाती है।
3. ग्वार:- जिन क्षेत्रो में वर्षा की कमी होती है ऐसे क्षेत्रो की हल्की बलूई दोमट मृदा को सुधारने में ग्वार का प्रयोग किया जाता है।
हरी खाद बनाने की विधियाँ:-
1. खेत में हरी खाद की फसल उगाकर मृदा में दबाना:- इस विधि में सर्वप्रथम खेत में हरी खाद की फसल उगाई जाती है इस विधि में सर्वप्रथम खेत में हरी खाद की फसल उगाई जाती है । उदाहरण - सनई, ढेंचा, लोबिया, ग्वार, आदि बुवाई के 6 - 7 सप्ताह पश्चात अथवा पुष्पावस्था के समय फसल को पाटा चलाकर खेत में गिरा देते है तथा मिट्टी पलटने वाले हल से फसल को खेत में दबा देते है।
इस विधि के अतिरिक्त हरी खाद बनाने के लिए पेड़ो एवं झाड़ियो की कोमल शाखाओं,टहनियों एवं पतियों का भी प्रयोग किया जाता है, जिन्हे वांछित खेत में जुताई करके दबा देते है, इस प्रकार के हरी खाद बनाने को हरित पर्ण विधि कहते है। मुख्य रूप से सूबबूल, करंज, अमलताश, सफेद आक आदि का कोमल भाग काम में लिये जाते है जो कि थोड़ी नमी होने पर भी आसानी से सड़ जाते है तथा मृदा में जीवांश पदार्थो की मात्रा में वृद्धि करते है।
हरी खाद के लाभ:-
1. हरी खाद को मृदा में मिलाने से मृदा की जैविक, रासायनिक एवं भौतिक दशाओं में संतुलन बढता हे।
2. हरी खाद के प्रयोग से मृदा में सुक्ष्मजैविक गतिविधियों में वृद्धि होती है ।
3. हरी खाद के प्रयोग से मृदा में जीवांश पदार्थ एवं पोषक तत्वों में वृद्धि होती है।
4. दलहनी फसलों के प्रयोग से मृदा में नाइट्रोजन की बढातरी होती है।
5. हरी खाद के प्रयोग से मृदा स्वास्थ्य में सकारात्मक सुधार होता है।
6. मृदा में जलधारण क्षमता में वृद्धि होती हे।
7. खरपतवारों की संख्या में कमी आती है।
8. हरी खाद में पाये जाने वाले पोषक तत्व इसके बाद उगाई जाने वाली फसल की आसानी से उपलब्ध हो जाते है।
9. मृदा की उर्वरता में वृद्धि होती है।
10. मृदा संरचना में सुधार होने के फलस्वरूप फसल की जड़ो का फैलाव अच्छा होता हे।
शकुंतला पालीवाल
सहायक कृषि अधिकारी,
कृषि विभाग, उदयपुर