अश्वगंधा (विथानियां सोमनीफेरा) एक कम खर्च में अधिक आमदनी तथा निर्यात से विदेशी मुद्रा अर्जित करने वाली महत्वपूण औषधीय फसल है। इसका वानस्पतिक नाम विथानियां सोमनीफेरा ड्युनाल है जो सोलेनेसी कुल का सदस्य है जिसमें 26 स्पेसीज है। इसमे में से दो स्पेसीज विथानियां सोमनीफेरा ड्युनाल एवम विथानियां सोमनीफेरा कोआगुलेंस ड्युनाल भारत में पाई जाती है। अश्वगंधा के जंगली पौधों को डोमेस्टिकेशन द्वारा कल्टीवेटेड पौधों में लाया गया। अश्वगंधा की खेती मध्यप्रदेश मे बहुतायत से होती है जिसमे नीमच, मंद्सौर, एवम रतलाम जिले प्रमुख हैं। इसके अलावा अन्य प्रदेशों जैसे राजस्थान ,महाराष्ट्रा, गुजरात, आंध्र प्रदेश, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, केरल, जम्मू कश्मीर एवम पंजाब में हो रही हैं। म.प्र. मे. अश्वगंधा का क्षेत्रफल लगभग 6-8 हजार हेक्टर एवं उत्पादन 1800-2000 टन हेै।
फसल का मह्त्व : अश्वगंधा का प्रयोग प्राचीन काल से विभिन्न रोगों के निदान हेतु होता आया है। इसके बहुमुखी उपयोग के कारण आयुर्वेद में इसे महा औषधि कहा गया है। बैंगन कुल के इस पौधे के प्रत्येक भाग में औषधीय गुणों का भंडार है। इसके जड़ का उपयोग अधिक होता है । यह अनिद्रा, उच्च रक्त चाप, चक्कर , हृदय रोग, शोध, शूल व रक्त शोधन में उपयोगी है। यह बल वृद्धि करते हुए शरीर के रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाने वाला है। वृद्धावस्था में शरीर की कोषिकाओं में टूट फूट तीव्र हो जाती है। अश्वगंधा इस प्रकार की टूट-फूट को कम कर नव जीवन व नयी शक्ति प्रदान करता है। साथ ही गठिया, वात, दर्द व स्नायु संबंधित कमजोरी को दूर कर नवस्फूर्ति प्रदान करता है। अश्वगंधा की जड़़ के चूर्ण का दूध के साथ जाड़े में दो तीन माह तक सेवन करने से शरीर में स्फूर्ति, ओज व क्रांति आती है। सभी प्रकार की वीर्य विकार दूर होते है। नस नाड़ियाॅ बलवान बनती हैं तथा श्वांश संबंधित बीमारियां दूर हो जाती हैं। कमजोर बच्चों के लिए यह टाॅनिक है, बच्चों का शरीर विकसित कर हष्ट पुष्ट बनाता है। यह महिलाओं में स्त्री रोगों को दूर करने में सहायक है। प्रसव उपरांत आई समस्त प्रकार की कमजोरी को दूर करता है। पुनः शक्ति को शीघ्र लौटाता है। यह कायाकल्प करने बाली औषधि हेै जोकि भागदौड भरी मशीनी जिन्दगी में हर व्यक्ति किसी न किसी प्रकार के मानसिक व शारिरिक तनाव से ग्रसित है। अश्वगंधा की जड़ों में पाये जाने वाले कुुुछ विशेष रसायनों में एन्टीस्ट्रेस गुण पाया जाता है। इसके लगातार सेवन से किसी भी प्रकार का तनाव सदा के लिए दूर हो जाता हेै। अतः आज कल औद्योगिक व व्यापारिक क्षे़त्र में बहुत से इंजीनियर, व्यवसायी व तकनीशियन इसका सेवन कर रहे हैं। इस कारण इसकी मांग विदेशों मे भी बहुत बढ़ रही है।
भूमि का चुनाव : अश्वगंधा के लिए बलुई दुमट मिट्टी उपयुक्त होती है। भारी मिट्टी में इसकी उपज अच्छी नहीं ह®ती, हल्की व मध्यम हल्का भूमि सर्वोत्तम होती है। मानसून प्रारम्भ होने से पहले खेत की अच्छी जुताई कर पाटा चला दें जिससे मिट्टी भुरभुरी बन जाए।
उन्नत जातियाॅ एवं लक्षण : जवाहर अश्वगंधा-20 (जे.ए.-20) जवाहर अश्वगंधा-134 (जे.ए.-134)
बुवाइ्र्र का तरीका : अश्वगंधा की बुवाई जुलाई के अंत से अगस्त के मध्य तक करते है जब वर्षा लगभग 70 प्रतिशत समाप्त हो जाती है। इसकी बुवाई छिडकाव विधि से की जाती है। पंक्ति में बोना ज्यादा अच्छा रहता है। इसके लिए 6-7 किलो बीज प्रति हेक्टर का आवश्यकता होती है। बोने के पूर्व बीज को डायथेन एम 45 नामक दवा से (3 ग्राम/किलो) उपचारित अवश्य करना चाहिए। बुवाई के बाद बीज को हल्का मिट्टी से ढक देना चाहिए। पर्याप्त नमी होने पर अंकुरण 8-10 दिन में हो जाता है।
खाद एवं उर्वरक :अश्वगंधा की खेती के लिए जीवांश खाद का उपयोग बहुत लाभकारी होता है। भूमि में जीवांश की मात्रा बनाए रखने के लिए 10-15 गाडी अच्छी सडी हुई गोबर की खाद प्रति हेक्टर के मान से जून माह से अच्छी तरह भूमि में मिलाकर बखरनी कर देवे जिससे जड¨ की गुणवत्ता में गुणात्मक सुधार होता है। इसके साथ ही फसल बोते समय कतार में 6-8 सेमी की गहराई पर 20-25 किलोग्राम नत्रजन 50-60 किलोग्राम फॉस्फोरस एवं 30-40 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टर की दर से बोने के समय कतार में बीज के नीचे अथवा सम्पुर्ण खेत मे फैलाकर अच्छी तरह मिट्टी मे मिलाने के पश्चात् बोनी करें। फसल में नत्रजन की अधिक मात्रा देने से पौधे के उपरी वायवीय भाग का विकास अधिक होता है तथा जड़े खोखली हो जाती है। अतः अनुसंशित मात्रा का उपयोग करें जिससे अच्छी गुणवत्ता वाली ठोस स्टार्ची जडे पैदा होती है। असगंध में पी.एस.बी. कल्चर का उपयोग बहुत लाभकारी होता है।
सिंचाई : फसल सामान्यतः असिंचित अवस्था में उगाई जाती है। परन्तु यदि बुवाई के समय पर्याप्त नमी न होने पर अंकुरण के लिए हल्की सिंचाइ्र करें। यदि स्प्रींकलर के द्वारा सिंचाइ्र्र करते है तो अंकुरण अच्छा होता है। बाद में यदि जमीन में दरार अधिक होने पर बोने के 80-100 दिन पर एक सिंचाई दे सकते है।
निंदाई गुढाई : फसल की आरंभिक बढवार बहुत धीमी गति से ह¨ती है। अतः 25-30 दिन की अवस्था में निंदाई गुढाई करें। इसी समय पौध विरलन का कार्य भी करें तथा 30 सेमी. कतार की कतार में पौधे से पौधे की दूरी 4-5 सेमी. रखें। कतार में बोनी अथवा छिङकवा बोनी में प्रति वर्ग मीटर क्षेत्र में 70-80 पौधे रखें।
कीट एवं व्याधि नियंत्रण : सामान्यता इस फसल में कीट - व्याधि का ज्यादा प्रकोप नहीं होता है । कभी-कभी माहू का प्रकोप देखा जाता हैं। इसके लिए मेटासिस्टाक्स 1.5 मि.ली. प्रति लीटर पानी का छिङकाव कर नियंत्रण किया जा सकता हैं। पौध गलन व झुलसा का प्रकोप होने पर डायथेन एम 45 का 2 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोल का छिङकाव करें।
अश्वगंघा की खेती में ध्यान देने योग्य महत्वपूर्ण बातें :-
1. अच्छे जल निकास का प्रबंघ करें।
2. बलुई दुमट भूमि का चयन करें।
3. समय पर बोनी करें (अगस्त के तीसरे सप्ताह से सितम्बर के प्रथम सप्ताह तक)
4. अच्छे एवं शीघ्र अंकुरण के लिए भूमि में उपयुक्त नमी रखें।
5. कतार में 30 सेमी. की दूरी पर कतार से कतार एवं 4-5 सेमी. पौधे से पौधे की दूरी रखें।
6. उचित बीज दर रखें (7-8 लाख प्रति हेक्टर ) आवश्यकता से ज्यादा पौध संख्या होने पर जड़े पतली हो जाती है वही कम पौध संख्या रखने पर जङे मोटी खोखली और रेशेदार हो जाती है।
7. बीज उपचार करें / 20-25 दिन बाद छनाई करें एवं उचित पौध संख्या रखें।
8. अनुशंसित मात्रा में खाद एवं उर्वरक का प्रयोग करें ।
9. अच्छी गुणवत्ता की जङ का उत्पादन लेने हेतु अच्छे गुणवत्ता वाले उन्नत किस्मो के बीज जैसे जवाहर असगंध -20 एवं जवाहर असगंध -134 का उपयोग करें।
10. फसल कटाई उपयुक्त अवस्था पर ही करें।
11. गीली जङें पौधे से काटकर श्रेणीकरण कर देवें। मंडी में अच्छी कीमत प्राप्त करने के लिए जड़ो का श्रेणीकरण करके ही बेचें।
विपणन : मध्य प्रदेश में अश्वगन्धा की ग्रेडेड जङो की मन्डी नीमच और मनासा मन्डीयोें में हैं। इन्हीं से व्यापारी वर्ग माल खरीदकर प्रसंस्करण के लिये या खुद बिक्री हेतु बाहर भेजते हैं।
प्रसंस्करण : स्टार्च युक्त जङे विभिन्न दवा बनाने वाली इकाईयों द्वारा बारीक पाउडर के रुप में पीस कर कैप्सूल तथा गोलियां बनाने के काम आती है। इसके मुख्य खरीदार डाबर, बैघनाथ, झन्डु, हिमालय ड्रग जैसी कम्पनियां है । वहीं रेशेदार पतली जङो का मिथेनाल की सान्द्र (अल्कालाईडस कन्सेन्ट्रेट) निकालकर दवा बनाने वाला इकाईयों द्वारा प्रयोग मे लाया जाता है।
डा.सी.पी.पचौरी, डा.पी.एस.नरूका, डा.एस.एस. सारंगदेवोत
कृषि विज्ञान केन्द्र, नीमच