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ईसबगोल की खेती

द्वारा, दिनांक 26-08-2019 03:14 PM को 1223

ईसबगोल की खेती

ईसबगोल एक अत्यंत महत्वपूर्ण औषधीय फसल हैं। औषधीय फसलों के निर्यात में इसका प्रथम स्थान हैं। वर्तमान में हमारे देश से प्रतिवर्ष 120 करोड़ के मूल्य का ईसबगोल निर्यात हो रहा है। विश्व में ईसबगोल का सबसे बड़ा उपभोक्ता अमेरिका है। विश्व में इसके प्रमुख उत्पादक देश ईरान, ईराक, अरब अमीरात, भारत, फ़िलीपीन्स इत्यादि हैं। भारत का स्थान ईसबगोल उत्पादन एवं क्षेत्रफल में प्रथम है। भारत में इसका उत्पादन प्रमुख रूप से गुजरात, राजस्थान, पंजाब,  हरियाणा, उत्तर प्रदेश आदि हो रहा हैं। 

उपयोग : ईसबगोल का औषधीय उपयोग अधिक होने के कारण विश्व बाज़ार में इसकी मांग तेज़ी से बढ़ रही हैं। ईसबगोल के बीज पर पाएं जाने वाला छिलका ही इसका औषधीय उत्पाद हैं जिसे ईसबगोल की भूसी के नाम से जाना जाता हैं। इसकी भूसी में पानी सोखने की क्षमता अधिक होती हैं । इसलिए इसका उपयोग पेट की सफाई, कब्जीयत, दस्त, आव, पेचिस, अल्सर, बवासीर जैसी शारीरिक बीमारियों के उपचार में आयुर्वेदिक दवा के रूप में किया जाता हैं। इसके अलावा आइसक्रीम, रंग रोगन, प्रिंटिंग आदि उद्योगों में भी इसका उपयोग किया जाता हैं । इसकी मांग एवं उपयोगिता को ध्यान में रखते हुए इसकी खेती वैज्ञानिक तकनीक से करना आवश्यक हैं । 

भूमि एवं जलवायु : ईसबगोल के लिए शुष्क जलवायु उपयुक्त हैं । अधिक आद्रता एवं नमीयुक्त जलवायु में इसकी खेती नहीं करना चाहिए । इसके अंकुरण के लिए 20-25  डिग्री सेल्सियस तथा पौधों की उचित बढ़वार के लिए 30 -35 डिग्री सेल्सियस तापक्रम उपयुक्त हैं। इसके लिए अच्छे जल निकास वाली दोमट या बलुई दोमट भूमि उपयुक्त हैं। भूमि की पी.  एच.  मान 7-8 तक होना चाहिए।
भूमि की तैयारी : दो बार आड़ी खड़ी जुताई एवं एक बार बखर चलावें तथा पाटा चलाकर मिटटी भुरभुरी एवं समतल कर लेवें। छोटी क्यारियां बना लें। क्यारियों की लम्बाई चौड़ाई खेत के ढलान एवं सिंचाई की सुविधानुसार रखें । खेत में जल निकास का प्रबंध अच्छा होना चाहिए। क्यूंकि खेत में पानी का भराव ईसबगोल के पौधे सहन नहीं कर सकते हैं ।

उन्नत जातियां : गुजरात ईसबगोल 1 एवं गुजरात ईसबगोल 2 मुख्य उन्नत जातियां हैं। अखिल भारतीय समन्वित औषधीय एवं सुगन्धित पौध परियोजना की अक्टूबर 1998 में हुई कार्यशाला में एक नई जाति जवाहर ईसबगोल 4  को म . प्र. के लिए अनुमोदित एवं जारी की गई हैं । इस जाति की उपज गुजरात ईसबगोल से 25-30 प्रतिशत अधिक हैं। 

बीज की मात्रा : कतारों में बोने पर 4-5 किलो एवं छिट्काव बोने पर 6-7 किलो बीज प्रति हेक्टर बोयें।

बीजोपचार : डायथेन एम - 45  2 ग्राम एवं 1 ग्राम कार्बेन्डाजिम प्रति किलो बीज के हिसाब से उपचारित करें।

बोआई का समय : नवम्बर का प्रथम सप्ताह से द्वितीय सप्ताह तक बोआई करें। दिसम्बर माह तक बोआई करने पर उपज में कमी आ जाती हैं। 

बुवाई की विधि : कतार से कतार की दूरी 30 से. मी. एवं पौधे की दूरी 5 से. मी. रखे । बीज की गहराई 2-3 से.मी. रखे । इससे ज्यादा गहरा बीज न बोयें । बोने के पहले बीज में बराबर मात्रा में बालू रेत मिलाकर बुवाई करें । छिट्काव पद्धति से बोने पर मिट्टी में ज्यादा गहरा न मिलावें।

खाद एवं उर्वरक : 
सड़ी गोबर की खाद 15-20  टन प्रति हेक्टर डालें ।  20 किलो नत्रजन, 40 किलो फॉस्फोरस एवं 20 किलो पोटाश प्रति हेक्टर बुवाई के समय डालें। 20 किलो नत्रजन प्रति हेक्टर बुवाई के 30 दिन बाद कल्ले निकलने की अवस्था पर डालें।

सिंचाई : बुवाई के तुरंत बाद सिंचाई देवें। अच्छे अंकुरण के लिए भारी जमीन में 5-6  दिन बाद गलवन देवें । इसके बाद प्रथम सिंचाई 30  दिन बाद कल्ले अवस्था एवं दूसरी सिंचाई 60 दिन बाद देवें। फूल एवं दाना भरने की अवस्था पर सिंचाई न दें। इनमें दो से ज्यादा सिंचाई देने पर रोगों का प्रकोप बढ़ जाता हैं तथा उपज में कमी आ जाती हैं।

निंदाई - गुड़ाई : बुवाई के 20-25 दिन बाद एक बार निंदाई - गुड़ाई अवश्य करें । इसी समय छनाई का काम भी कर देवें तथा पौधों की दूरी 5 cm रखें । पौध संख्या उचित रखने पर माहू, एवं डाउनी मिल्ड्यू बीमारी का प्रकोप कम होता हैं और उपज में बहुत कमी नहीं आती हैं। इस फसल में रासायनिक नींदा  नियंत्रण के लिए आइसोप्रायटूरान दवा 1 किलो प्रति हेक्टर के दर से बोनी के तुरंत बाद 800-1000 लीटर पानी में घोलकर छिडकाव करें।

पौध संरक्षण :
 
माहू  : माहू के नियंत्रण हेतु मिथाइल डीमेटोन  25: ई. सी. डायमिथोएट 30: ई. सी. 1.25 मि.ली. या एसिटामिप्रिड 0.3 ग्राम प्रति लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करें । आवश्यकतानुसार 15/20 दिन बाद फिर से छिड़काव करें।

पौध विगलन रोग : फसल अंकुरण के बाद पौधे मर जाते हैं। इस रोग का संक्रमण भूमि की निचली सतह पर होता हैं जिससे पौधे मुरझाकर गिर जाते हैं। रोग के नियंत्रण के लिए बीजोपचार करें तथा रोग का प्रकोप होने पर कॉपर ओक्सीक्लोराइड 50: डब्ल्यू पी . की  3 ग्राम मात्रा प्रति लीटर में घोलकर भूमि को अच्छी तरह से तर करें।

डाउनी मिल्ड्यू : इस रोग के लक्षण पौधों में बाली निकलते समय दिखाई देते हैं। सर्वप्रथम पत्तियों की ऊपरी सतह पर सफ़ेद या कत्थई रंग के धब्बे दिखाई देते हैं तथा पत्ती के निचले भाग में सफ़ेद चूर्ण जेसा कवक जाल दिखाई देता हैं। बाद में पत्तियां सिकुड़ जाती हैं तथा पौधों की बढ़वार रुक जाती हैं जिसके परिणामस्वरूप डंठल की लम्बाई ए बीज बनना एवं बीज की गुणवत्ता प्रभावित होती हैं । रोग नियंत्रण हेतु स्वस्थ व प्रमाणित बीज बोयें, बीजोपचार करें एवं कटाई के बाद फसल अवशेषों को जला देवें। रोग का प्रकोप होने पर 3 ग्राम डायथेन एम् - 45 या  3 ग्राम कापर ओक्सीक्लोराइड प्रति लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करें।

फसल की कटाई : फसल 115-120 दिन में पककर तैयार हो जाती हैं, फसल पकने पर पौधों की ऊपरी पत्तियां पीली एवं नीचे की पत्तियां सूख जाती हैं। बालियों को हथेली में मसलने पर दाने आसानी से निकल जाते हैं। इसी अवस्था पर फसल की कटाई करें। कटाई सुबह के समय करने पर झड़ने की समस्या से बचा जा सकता हैं । फसल कटाई देर से न करें अन्यथा दाने झड़ने से उपज में बहुत कमी आ जाती हैं। मावठा आने की स्थिति में फसल कटाई 2-3 दिन जल्दी कर लेवें।

उपज : 
उन्नत तकनीक से खेती करने पर १५.१६ क्विंटल प्रति हेक्टर उपज मिल जाती हैं । 

ईसबगोल की अधिक उपज के लिए क्या करें : 
1 समय पर बोनी करें 
2 बीज की गहराई 2-3 सेमी. से ज्यादा न रखें  
3 बीजोपचार अवश्य करें 
4 उन्नत बीज का उपयोग करें 
5 पौधों की छनाई 20 दृ 25 दिन बाद अवश्य करें।
6 क्रांतिक अवस्थाओं पर दो सिंचाई से ज्यादा न करें।
7 डाउनी मिल्ड्यू रोग का उपचार फफूंद नाशी से अवश्य करें। रोगग्रस्त पौधों को उखाड कर नष्ट कर देवें।
8 मोयला का नियंत्रण समय पर अवश्य करें 
9 खरपतवार नियंत्रण समय पर करें 
10 कटाई उपयुक्त अवस्था में करें 
11 मावठा को ध्यान में रखते हुए कटाई 2-3 दिन जल्दी कर लेवें 
12 फसल की गहाई सुबह के समय खेत में ही करें। 

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