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आम की उन्नत बागवानी

द्वारा, दिनांक 23-09-2019 06:00 PM को 238

आम की उन्नत बागवानी

आम की उन्नत बागवानी 

राजस्थान में आम की व्यवसायिक खेती बहुत ही कम क्षेत्रों में होती है। अधिकांश उद्यान बहुत पुराने होने के कारण उनका उत्पादन एवंम् गुणवत्ता ज्यादा अच्छी नहीं है। पिछले कुछ वर्षों में आम की सुव्यवस्थित खेती होने लगी है। राजस्थान मे आम उदयपुर, बासंवाडा, डुंगरपुर, सिरोही, बूँदी, सवाई माधोपुर, कोटा, भरतपुर व दौसा जिलों के अधिकांश क्षेत्रों में प्रमुखता से लगाया जा सकता है। परन्तु उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र व गुजरात में उत्पादित होने वाले फलों से गुणवत्ता एवम् प्रति पौधा उत्पादन की दृष्टि से काफी कम है। अधिकांश पुराने पेड़ों पर देखरेख एवम् सन्तुलित पोषण की कमी के कारण बहुत कम उत्पादन मिलता है। 

जलवायु : आम के लिये उष्ण व उपोष्ण जलवायु मानी गई है। आम आर्द्र एवं शुष्क दोनों प्रकार की जलवायु में पनपता है। परन्तु पुष्पन एवं फलन के समय वर्षा एवं अधिक आर्द्रता काफी हानिकारक है। आम की अच्छी खेती के लिये वे क्षेत्र सर्वाधिक उपयुक्त हैं, जहाँ जून से सितम्बर तक पर्याप्त वर्षा होती है तथा पुष्पन व फलन के समय मौसम साफ रहता है। आम की अच्छी बढ़वार एवं पुष्पन के लिये 24-28 डिग्री सें. तापक्रम सर्वाधिक उपयुक्त रहता है। 

मृदा : आम की उचित बढ़वार एवं फलन के लिये जीवांश युक्त गहरी बलुई दोमट मिट्टी जिसमें जल निकास की उचित व्यवस्था हो, उपयुक्त रहती है। भूमि का पी. एच. मान 6.5 से 7.5 होना आम उत्पादन के लिये उत्तम रहता है। चूना युक्त कंकरीली-पथरीली व ऊसर भूमि इसकी खेती के लिये अनुपयुक्त रहती है। 

उन्नत किस्में :
1 दशहरी, 2 लगंड़ा,  3 केसर, 4 अलफान्सों, 5 आम्रपाली, 6 मल्लिका। 

पादप प्रर्वधन : आम को बीज व वानस्पतिक विधियों द्वारा प्रवर्धित किया जा सकता है। अच्छे गुणों वाले इच्छित पौधे तैयार करने के लिये वानस्पतिक विधियों का ही प्रयोग किया जाता है। इन विधियों में इनार्चिग, विनियर ग्रफ्टिंग, सॉफ्टवुड ग्राफ्टिंग एवं स्टोन ग्राफ्टिंग प्रमुख है। 

उद्यान का रेखांकन एंव गड्ढे तैयार करना  : आम के पौधे किस्म के अनुसार 8-10 ग् 8-10 मीटर की दूरी पर लगाये जाते हैं। सघन बागवानी में आम के पौधे को 2.5-3.0 ग् 2.5-3.0 मीटर की दूरी पर लगाया जाता है। 

गोबर की खाद एवम् उर्वरक देने का समय व विधि : 
1 गोबर की खाद एवं फॉस्फोरसधारी उर्वरकों का प्रयोग दिसम्बर-जनवरी माह में करना चाहिये। 
2 नाइट्रोजन व पोटाशधारी उर्वरकों की आधी मात्रा फरवरी व आधी मात्रा अप्रेल-मई के महिनों में देनी चाहिए। 
3 जस्ते की कमी की पूर्ति के लिये 2 प्रतिशत जिंक सल्फेट व 1 प्रतिशत बुझे हुए चूने के घोल को मिलाकर वर्ष में तीन छिड़काव करने चाहिये। 
4 मैंग्नीज की कमी की पूर्ति के लिये 0.5 प्रतिशत मैंग्नीज सल्फेट का छिडकाव नई पत्तियों पर 3 बार (मार्च-अप्रेल,जून-जुलाई ओर सितम्बर-अक्टूबर) में करना चाहिये। 
5 बॉरोन की पूर्ति के लिये समान्तर अवस्था में प्रति पेड़ 250-500 ग्राम बोरेक्स का प्रयोग करना चाहिये, परन्तु भूमि लवणीय होने पर एक प्रतिशत बोरेक्स के घोल का अप्रेल-मई के माह में 10 दिन के अन्तर पर छिड़काव करना चाहिये। 

सिंचाई : राजस्थान में आम के बाग में वर्षा ऋतु (बरसात के समय) को छोड़कर गर्मियों में 7-8 दिन तथा शीत ऋतु में 15 दिन के अन्तराल पर, सिंचाई करनी चाहिये परन्तु नये लगाये पौधों को 3-4 दिन के अन्तर पर पानी देना चाहिये। फूल आने के समय सिंचाई रोक देनी चाहिये वरना फूल झड़ जाते हैं। 

काट-छांट : आम के पौधों को उचित आकार देने व पौधों को नियंन्त्रित अवस्था में रखने के लिए काट-छांट की आवश्यकता पड़ती है। उचित आकार देने के लिये पौधों को 75 स.ेमी. की ऊंचाई पर से 40-45 से.मी. की दूरी पर 3-4 शाखायें रखनी चाहिये। जब मुख्य तने पर 3-4 शाखाएँ बन जायें तो इसकी बढ़वार रोक देनी चाहिये। फलदार वृक्षों में काट-छांट की कम आवश्यकता होती है। इनमें से केवल सूखी, रोगग्रस्त, कीटयुक्त शाखाओं को ही निकालना चाहिये। गुच्छा रोग के गुच्छों को हटाते रहना चाहिए।

निराई-गुड़ाई : आम के बगीचों को खरपतवारों से होने वाले नुकसान से बचाने के लिये व भूमि की उर्वरा शक्ति बनाये रखने के लिये निराई-गुड़ाई की आवश्यकता होती है। आम के बगीचों में प्रतिवर्ष 2-3 जुताई तथा तने के आस-पास गुड़ाई करके खरपतवार रहित कर देना उपयुक्त रहता है।

उपज एवं भण्डारण : अन्य आम उत्पादक राज्यों की अपेक्षा राजस्थान में आम का उत्पादन प्रति पेड़ काफी कम है। आम के एक वयस्क पेड़ से 80-100 कि.ग्रा. फल प्राप्त हो जाते हैं। 10 वर्ष पुराने पेड़ पर लगभग 250 कि.ग्रा. तक आम पैदा किये जा सकते हैं। जो बगीचों की देखभाल, पोषण, प्रबन्धक किसान व मौसम पर निर्भर करता है। आम के फलों को 12.7 डिग्री सेल्सियस तापक्रम पर 80-90 प्रतिशत आपेक्षिक आर्दता पर 2-3 सप्ताह तक भण्डारित किया जा सकता है। 

फलों का पकना : आम के फलों को बंद कमरों में पुआल के तहों के मध्य में इकटठा करके पकाते हैं। इस विधि में आम के पत्तों की तह के ऊपर समान मात्रा में फलों को फैला देते हैं तथा उनके ऊपर पुनः पुआल डालकर ढक देते हैं। धीरे-धीरे कमरे का तापमान बढ़ता है तथा ईथाइलीन गैस का स्त्रावण होता है। आम को कम तापमान पर 5-6 दिनों तक धीरे-धीरे पकाया जाए तो फलों के गुण व रंग का विकास बहुत अच्छा होता है। फलों को कृत्रिम रूप से पकाने के लिए इथरेल नामक रसायन की 5000 पी.पी.एम. सांद्रता के घोल में डुबोकर रख दिया जाता है जिससे फलों में रंग तो आकर्षक आ जाता है। परन्तु खुशबू एवं स्वाद विकसित नहीं हो पाता है।

आम के हानिकारक कीट एवं उनका प्रबन्धन :

1. मिलीबग : यह कीट आम को अत्यधिक हानि पहुंचाता है। इनके वयस्क एवं प्रौढ़ दोनों ही मुलायम प्ररोहां, पत्तियों तथा फूलों का रस चूसते हैं जिसका फूलों पर अधिक प्रभाव पड़ता है।
प्रबन्धन :
1. दिसम्बर माह में खेत की जुताई करनी चाहिए।
2. कीटों को वृक्षों के ऊपर चढ़ने से रोकने के लिए पेड़ के चारों ओर पोलीथीन की 30-40 से.मी. चौड़ी पट्टी जमीन से 60 से.मी. ऊंचाई पर तने के चारों तरफ लगाकर उसके निचले भाग में 15-20 से.मी. तक ग्रीस का लेप कर देना चाहिए।
3. एक मिलीलीटर रोगोर प्रति लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करना चाहिए।
4. आवश्यकतानुसार उपरोक्त छिड़काव को 2-3 बार दोहराना चाहिए।

2. आम का फुदका : यह भूरे रंग का बहुत ही छोटा कीट होता है। वह आम के फूल, छोटे फल तथा नई वृद्धि का रस चूसता है जिससे पुष्पक्रम एवं छोटे फलों को काफी नुकसान पहुँचता है। फल मुरझाकर गिर जाते हैं तथा उपज में भारी नुकसान होता है।
प्रबन्धन :
1. बाग में साफ-सफाई रखनी चाहिए तथा समय-समय पर निराई-गुड़ाई करते रहना चाहिए।
2. मैलाथियान 0.03 प्रतिशत घोल का छिड़काव करना चाहिए।

3. प्ररोह पिटिका कीट : प्रभावित पेड़ों के प्ररोहों में गांठ बन जाती है तथा शाखा की बढ़वार रूक जाती है। कीट मार्च-अप्रेल के महीने में नई पत्तियों की मुख्य शिराओं पर अंडे देते हैं जिसके फलस्वरूप कीट विकास के साथ-साथ प्रभावित स्थान पर गांठ बन जाती है जिनमें पंखयुक्त वयस्क पाया जाता है।
प्रबन्धन :
1. कीट की रोकथाम के लिए दिसम्बर-जनवरी के महिने में गांठें तोड़कर नष्ट कर देना चाहिए।
2. कीट का अधिक आक्रमण होने पर रोगोर अथवा नुवाक्रोन कीटनाशक रसायन को 2 मि.ली. प्रति लीटर पानी में मिलाकर अगस्त के प्रथम सप्ताह से 15 दिन के अंतर पर तीन छिड़काव करने चाहिए।

4. छाल एवं तना भक्षक कीट : यह कीट आम की छाल में घुसकर छाल को खाता है। तने एवं शाखाओं में सुरंग बनाकर वृक्ष को खोखला बना देता है।
प्रबन्धन :
1. मैलाथियान के 0.05-0.1 प्रतिशत घोल को 5 मि.ली. प्रति छिद्र के हिसाब से डाल देना चाहिए।
2. रूई को पेट्रोल या केरोसिन में भिगोकर कीट की सुरंगों के अन्दर भर देना चाहिए तथा उपर से मिटटी लगा देवें।

5. फल की मक्खी : मादा मक्खी फल के अन्दर 3-4 मि.मी. की गहराई में अंडे देती है। बाद में सूंडी निकलकर गूदे को खाना शुरू कर देती है। फलस्वरूप फल सड़ना शुरू हो जाते हैं। प्रभावित फल नीचे गिर जाते हैं।
प्रबन्धन :
1. प्रभावित फलों को नष्ट कर देना चाहिए।
2. प्रौढ़ मक्खियों की रोकथाम के लिए 0.03 प्रतिशत फॉस्फोमिडान दवा का छिड़काव करना चाहिए।
3. नवम्बर-दिसम्बर माह में उद्यानों में जुताई करनी चाहिए।

6. स्टोन विवील (गुठली धुन) : मादा कीट अपरिपक्व छोटे फलों अथवा पकने वाले फलों के छिलके के अंदरूनी भाग में अण्डे देती है। शिशु कीट गूदे में छेद करके गुठली को आहार बनाकर अंत में गिरी को क्षति पहुँचाते हैं।
प्रबन्धन :
1. बाग की सफाई समय-समय पर निराई-गुड़ाई व जुताई करते रहना चाहिए।
2. ग्रसित फलों को सप्ताहवार इकटठ्ा कर नष्ट करना चाहिए।
3. फलन की प्रारिम्भक अवस्था में निम्बिसिडीन, मल्टीनीम, निमैरिन (0.2 प्रतिशत) का छिड़काव करना चाहिए।

2. आम की प्रमुख व्याधिया एवं उनका प्रबन्धन :

1. चूर्णित आसिता : मंजरियों और नई पत्तियों पर सफेद या धुसर चूर्णित वृद्धि दिखलाई पड़ती है। रोग का संक्रमण मंजरियों की शिखा से प्रारंभ होकर नीचे की ओर पुष्प अक्ष, नई पत्तियों और पतली शाखाओं पर फैल जाता है। इससे प्रभावित भागों की वृद्धि रूक जाती है। पुष्प और पत्तियाँ गिर जाती हैं। यदि संक्रमण के पूर्व फल लग गए हों तो वे अपरिपक्व अवस्था में ही गिर जाते हैं। राजस्थान में यह रोग अन्य आम उत्पादक क्षेत्रों की अपेक्षा कम लगता है।
प्रबन्धन :
1. रोकथाम के लिए 0.05 से 0.1 प्रतिशत कैराथेन या 0.1 प्रतिशत बाविस्टिन या 0.1 प्रतिशत बेनोमिल नामक कवकनाशी दवाओं का पहला छिड़काव जनवरी, दूसरा फरवरी के आरंभ में और तीसरा छिड़काव फरवरी के अन्त में करना चाहिए।

2. श्यामव्रण रोग : श्यामव्रण रोग से प्रभावित पत्तियों पर भूरे या काले, गोल या अनियमिताकार के धब्बे पाए जाते हैं। पत्तियों की वृद्धि रूक जाती है और ये सिकुड़ जाती हैं। कभी-कभी रोगजनक उतक सूखकर गिर जाते हैं जिससे पत्तियों में छिद्र दिखाई पड़ते हैं। उग्र संक्रमण में रोगी पत्तियाँ गिर जाती हैं। यह रोग मंजरी अंगमारी तथा फल सड़न के रूप में भी प्रकट होता है।
प्रबन्धन :
1. रोकथाम के लिए रोगी पौधे पर 0.2 प्रतिशत ब्लाईटॉक्स - 50 या फाईटलान नामक दवाओं के घोल का फरवरी से मई के मध्य तक दो-तीन छिड़काव करने चाहिए।
2. रोग ग्रसित टहनियों व पत्तियों को काट कर नष्ट कर देवें।

3. आम में कार्यिकीय विकार :
1. झूमका/पुष्प गुच्छा : इस रोग में पेडों की शाखाओं एवं पुष्पवर्न्तां की बनावट विकृत हो जाती है। नई शाखायें व पुष्पक्रम गुच्छों के रूप में परिणित हो जाते हैं। शाखा गुच्छा रोग अधिकतर नर्सरी के छोटे पौधों में पाया जाता है। रोगी पौधों का ऊपरी भाग झाडूनुमा हो जाता है तथा बढ़वार रूक जाती है। पुष्पक्रम गुच्छा रोग में सारे पुष्प गुच्छों का रूप धारण कर लेते हैं। बाद में कभी-कभी इन गुच्छों में से छोटी-छोटी पत्तियाँ निकल आती हैं, इन गुच्छों में फल नहीं आते हैं।
प्रबन्धन :
1. विकृत भागों को काटकर नष्ट कर देना चाहिए।
2. सितम्बर व अक्टूबर में निकली पुष्प कलिकाओं को तोड़कर 200 पी.पी.एम. नैफ्थलिन  
एसिटिक एसिड के साथ 0.01 प्रतिशत फफूँदनाशी दवा (डाईथेन एम-45) के घोल का छिड़काव अक्टूबर, नवम्बर व दिसम्बर माह में करना चाहिए।
3. पौधों मे जून माह में संतुलित पोषण जैविक घटकों द्वारा देना चाहिए।

4. काला सिरा या ब्लैक टिप : यह रोग मुख्य रूप से बोरोन की कमी व ईट के भट्टों के पास वाले बगीचों में पाया जाता है। प्रभावित फलों के दूरांत पर भूरे रंग का जलशोषित धब्बा बन जाता है जो बाद में गहरे भूरे रंग का हो जाता है। फल सड़ने लगते हैं।
प्रबन्धन :
1. आम के बागांं को ईट के भट्टों से दूर लगाना चाहिए।
2. भट्टों से निकलने वाले धुंए को 50 मीटर की उंचाई पर चिमनियों के माध्यम से निष्कासित  करना चाहिए तथा धुंआ छोड़ने से पूर्व हानिकारक कार्बन का संशोधन करना चाहिए।
3. बोरोन के भूमि में प्रयोग करने के लिए करीब 250 से 500 ग्राम बोरेक्स प्रति पेड़ के हिसाब से फरवरी-मार्च के महीने में प्रयोग करना चाहिए।

5. स्पंजी उत्तक : इस बीमारी से ग्रस्त फल बाहर से स्वस्थ दिखाई देते हैं, परन्तु गूदे का कुछ भाग स्पंज का रूप ले लेता है जिससे फल खाने लायक नहीं रह पाते हैं। प्रभावित भाग में रिक्त स्थान बन जाता है। यह विकिरण व ताप के प्रभाव से होता है।
प्रबन्धन :
1. उद्यान में घास-फूस व जैविक कचरों से पलवार बिछानी चाहिए।
2. फलों को तीन-चौथाई परिपक्व अवस्था में तोड़कर पकाना चाहिए।

6. पत्तियों का झुलसाना : राजस्थान में आम की पत्तियों का झुलसान रोग काफी गम्भीर समस्या है। यह बीमारी पत्तियों में क्लोराईड आयन्स की अधिकता से होती है। क्लोराइड आयन की अधिकता से पत्तियों का पोषण स्तर नीचा होता है। सबसे पहले पत्तियों का अगला भाग ईंट की तरह लाल रंग का हो जाता है। बाद में यह बीमारी पूरी पत्ती पर फैल जाती है। फलस्वरूप पत्तियाँ सूख कर गिरने लगती हैं।
प्रबन्धन :
1. उद्यानों में संतुलित पोषण हेतु जैविक खादों का इस्तेमाल करना चाहिए।
2. गिरी हुई पत्तियों को पेड़ के नीचे से हटा देना चाहिए।
3. पोटेशियम क्लोराईड की जगह पौटेशियम सल्फेट का प्रयोग करना चाहिए।

7. आम के फूल एवं फल का गिरना : प्राकृतिक रूप से आम में लगभग 99 प्रतिशत फूल वृद्धि के समय विभिन्न चरणों में गिर जाते हैं जिससे फल उत्पादकों को काफी आर्थिक हानि होती है। अधिकांश फूल खिलते ही गिर जाते हैं और फल नहींं बन पाते हैं। मुख्यतः फलों के गिरने की तीन अवस्थाएँ हैं। प्रथम-फलों की बहुत छोटी अवस्था में द्वितीय- पूर्णफल मटर अवस्था बनने के बाद, तृतीय- मई में कच्चे फलों का गिरना आदि। आम की अधिकांश किस्मों में 0.1-0.25 प्रतिशत फल परिपक्व अवस्था तक पहुंच पाते हैं।
प्रबन्धन :
1. फूल की अवस्था में भारी सिंचाई नहीं करनी चाहिए।
2. फल बनते समय खेत में हल्की सिंचाई कर देनी चाहिए। इससे काफी हद तक छोटे फलों का गिरना रूक जाता है।
3. फलों को गिरने से रोकने के लिए 90 मि.ली. प्लोनोफिक्स एक ड्रम पानी (200 लीटर) में घोल कर आम के मटर के दाने की अवस्था में होने पर छिड़काव कर देना चाहिए तथा आवश्यकता हो तो छिड़काव दोहराना चाहिए।

8. अनियमित एवं एकान्तर फलन : राजस्थान में उगाई जाने वाली लगभग सभी किस्मों में अनियमित एवं एकान्तर फलन की गम्भीर समस्या है। इसमें आम के वृक्ष में एक वर्ष अच्छी उपज होती है व दूसरे वर्ष उपज बहुत कम या नहीं होती है।
प्रबन्धन :
1. उचित समय पर खाद, उर्वरक एवं पादप वृद्धि नियंत्रकों का प्रयोग तथा सिंचाई, निराई-गुड़ाई तथा कीट एवं व्याधियों पर नियत्रंण से अनियमित फलन की समस्या को कम किया जा सकता है।
2. नियमित फल देने वाली किस्में जैसे आम्रपाली, मल्लिका, रत्ना आदि किस्मों का रोपण करना चाहिए।
3. कुछ शाखाओं के फूल, फल बनने से पूर्व ही तोड़ दिये जाएं तथा शेष को फलने दिया जाए तो अगले वर्ष जिनमें फलन नहीं लिया गया है, उनमें फलन होगा तथा उत्पादन में प्रतिवर्ष संतुलन बना रहेगा।
4. सितम्बर-अक्टूबर माह में पेक्लोब्यूट्राजोल (5-10 ग्राम/वृक्ष) मृदा में मिलाने से ‘‘ऑफ ईयर’’ में भी फल बनने की संभावना रहती है।

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