बेर की उन्नत बागवानी
बेर का व्यवसायिक उत्पादन राजस्थान, हरियाणा, पंजाब, गुजरात, उत्तर प्रदेश में किया जाता है। राजस्थान में बेर मुख्य रूप से जयपुर, अजमेर, सीकर, जोधपुर, पाली, सिरोही, उदयपुर एवम् चित्तौड़गढ़ क्षेत्र में उगाया जाता है। इसके फल उच्च पोषण युक्त होने के कारण इसको गरीब की सेव भी कहते हैं।
मृदा का चयन : यद्यपि बेर को विभिन्न प्रकार की मृदाओं में भी उगाया जा सकता है किन्तु गहरी बलुई दोमट भूमि, जो हल्की क्षारीय हो, इसकी बागवानी के लिए सर्वोतम होती है। उथली एवं कठोर मृदाओं में फल की गुणवत्ता एवं उपज कम हो जाती है। अधिक पथरीली भूमि में बेर की जडे़ें कुण्डलीत हो जाती हैं। परिणामस्वरूप पौधे में नई बढ़वार नहीं आने से फलन कम होता है। अधिक जलमग्नता भी बेर के लिए हानिकारक होती है।
पानी एवं सिंचाई की सुविधा : बेर एक शुष्क जलवायु का पौधा होने के कारण इसे कम पानी की आवश्यकता होती है। परन्तु जुलाई से अक्टूबर माह तक मृदा में अच्छी नमी रहने से नई बढ़वार एवं फलन अच्छा होता है। अक्टूबर से फरवरी तक पानी की सामान्य मांग होती है। तथा अप्रेल से जून माह में बेर को पानी की आवश्यकता बहुत कम होती है। गुणवत्ता की दृष्टि से बेर को काफी हद तक लवणीय पानी दिया जा सकता है। परन्तु अधिक लवणयुक्त कठोर पानी देने से पौधे मर जाते हैं तथा उत्पादन में कमी आ जाती है। बेर में अधिक पानी देने से एवं जलमग्नता वाली स्थिति में इसकी बढ़वार रूक जाती है।
जलवायु : बेर के वृक्ष जलवायु की काफी प्रतिकूल दशायें भी सहन कर लेते हैं। शुष्क गर्म जलवायु बेर की बागवानी के लिए श्रेष्ठ है। अधिक आर्द्रता युक्त स्थानों पर इसकी बागवानी नहीं करनी चाहिए। बेर के पौधे पाले, लू एवं असामान्य स्थिति का सामना आसानी से कर लेते हैं।
बेर में प्रवर्धन : अधिकांश बेर के पेड़ सीधे बीज द्वारा तैयार किये जाते हैं किन्तु ऐसे पेड़ों की पैदावार कम तथा घटिया किस्म की होती है। पैबन्दी या कलमी पौधे के उद्यान लगाकर ही लाभ कमाया जा सकता है। वानस्पतिक विधियों में ढाल तथा छल्लाकार कलीकायन विधि का प्रयोग सबसे अच्छा रहता है। वर्तमान समय में ट्यूब विधि का प्रचलन काफी अधिक एवं सफल है।
1. मूलवृंत तैयार करना : बेर का मूलवृंत सीधा खेत में भी तैयार किया जा सकता है। जहाँ बगीचा लगाना हो, उचित विधि से रेखांकन कर तैयार गड्ढों में बीज की बुवाई की जा सकती है। पौधों की देखभाल एवं बड़े स्तर पर पौधे तैयार करने के लिए मूलवृंत पॉलीथिन की थैलियों में तैयार करना चाहिए। इस विधि से मूलवृंत तैयार करने के लिए 25ग12 से.मी. आकार की थैलियों में मार्च अप्रेल के माह में गुठली के ऊपर छिलके में हल्की दरार पैदा कर बीजों को जिब्रेलिक अम्ल के 500 पी.पी.एम. के घोल में भिगोकर फफूंदनाशी दवा से उपचारित करके बुवाई कर देनी चाहिए। बीजों का अंकुरण लगभग 15 से 26 दिन में होता है। बरसात प्रारंभ होने तक पौधे खेत में स्थानान्तरण के योग्य हो जाते हैं। जिन पौधों का आकार पैंसिल के समान हो जाये उनमें कलिकायन किया जा सकता है। खेत या थैलियों में तैयार मूलवृंत पर अगले वर्ष जून माह में कलिकायन किया जा सकता है। कलिकायन के लगभग दो माह बाद नर्सरी में रखे अच्छे गुण वाले पौधों को मुख्य खेत में लगा देने चाहिए। अगर कलिकायन मुख्य खेत में ही किया गया है तो इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि जो कलिकायें नष्ट हो गयी हैं, उन पौधों पर पुनः कलिकायन करवा देवें।
2. कलिकायन करना : बेर में मुख्य रूप से छाल तथा छल्लाकार कलिकायन किया जाता है।
(अ) ढाल कलिकायन : मूलवृंत के लगभग 15-22 से.मी. की ऊँचाई पर 3-4 से.मी. लम्बा चीरा लगाकर चीरे के शीर्ष स्थान पर आड़ा चीरा लगा देना चाहिए तथा चीरे के आस-पास की छाल को ढक कर चीरे के अनुरूप अच्छी किस्म की स्वस्थ एवं नई कलिका को सावधानी से निकालकर कलिका के अंदर लगी हुई लकड़ी को अलग करके ठीक ढंग से तैयार किये स्थान पर लगाकर पॉलीथिन की पट्टी या बडिंग टेप से बांध देवें। कली का अंकुर खुला रहना चाहिए।
(ब) छल्ला या रिंग कलिकायन : इस विधि में मूलवृंत के शीर्ष भाग को लगभग 18-20 स.ेमी. से काट दिया जाता है तथा शीर्ष भाग से 1 से.मी. की छाल छल्ले के आकार में निकाल लेवें तथा सांकुर शाखा से कलिका भी छल्लेनुमा आकार में निकालकर मूलवृंत के ऊपर भाग पर पहना देना चाहिए। मूलवृंत व सांकुर शाखा का आकार समान होना आवश्यक होता है। कुछ ही दिनों में कलिका मूलवृंत के चिपक जाती है तथा संकुर शाखा निकल जाती है।
2. नाली विधि से पौधे तैयार करना : यह विधि पारीक (1978) में विकसित की गई। इस विधि में बीजों को पॉलीथिन (300 गेज) की ट्यूब (25×10 से.मी.) में अच्छी तरह तैयार जड़ माध्यम से भर कर अप्रेल माह में बीजों की बुवाई कर देते हैं। लगभग 3 माह बाद पौधे कालिकाय के योग्य हो जाते हैं जिनको जुलाई माह में कालिकाय करके सितम्बर माह में मुख्य खेत में रोपित कर दिया जाता है। पॉलीथिन की ट्यूब नीचे से खुली होने के कारण बेर की जड़ों में कुण्डली नहीं बनती है और पौधों में शीघ्रता से बढ़वार शुरु हो जाती है। इस विधि से बहुत कम समय में पौधा तैयार हो जाता है।
पौधा रोपण : बेर के पौधों को फरवरी-मार्च तथा अगस्त-सितम्बर में मुख्य खेत में लगाया जा सकता है। उद्यान का रेखांकन 6×6 मीटर की दूरी पर करते हुए रोपाई से लगभग 1 माह पहले उचित स्थानों पर 1 घन मीटर के गड्ढे बना लेने चाहिए। फिर पौधे लगाने से लगभग 2 सप्ताह पहले 20-25 किलोग्राम गोबर की खाद 100 ग्राम सुपर फॉस्फेट, 50 ग्राम मिथाईल पैराथियॉन पाउडर तथा 2 किलोग्राम नीम की खली को अच्छी तरह मिलाकर गड्ढे में भर देनी चाहिए। गड्ढे भरने के बाद सिंचाई कर देना चाहिए जिससे कि गड्ढों की मिट्टी तथा खाद का मिश्रण ठीक ढंग से बैठ जायेगा अगर गड्ढों का भराव जमीन की सतह से नीचा रहता है तो उसमें खाद मिट्टी का मिश्रण मिलाकर बराबर करना चाहिए। जब पानी सूख जाये तो इन गड्ढों के बीचों-बीच पौधे लगा देने चाहिए ताकि मुख्य जड़ टूटे नहीं तथा उसमें कुण्डली नहीं डालनी चाहिए। पौधे पर लगी पैबन्ध वाले स्थान व शाखा के जुड़ाव वाले बिन्दु को भूमि तल से 20-25 से.मी. ऊँचा रखना चाहिए। आवश्यकता हो तो पौधे को सहारा प्रदान करें ताकि पौधा झुके नही, पौधा लगाने के बाद सिंचाई करें व समय-समय पर आवश्यकता अनुसार पानी देते रहें। पैबन्द के नीचे से निकलने वाली शाखाओं व रोग ग्रस्त शाखाओं को हटाते रहना चाहिए।
उद्यान प्रबन्धन : साधारणतः बेर के बागां का उचित प्रबन्धन नहीं करने से इसके उत्पादन में भारी कमी आ जाती है। पौधों की शाखाएँ सूखने लगती हैं, कीट व रोगों का प्रकोप बढ़ जाता है। पौधे अनियंत्रित एवं सघन हो जाते हैं व प्रतिवर्ष कृन्तन क्रिया नहीं करने से फूल कम आना, फूल झड़ना व अपरिपक्व फलों के झड़ने जैसी अनेक समस्याएँ पैदा हो जाती हैं। इसके फलस्वरूप बेर के फलों का आकार छोटा हो जाता है व खाने में अच्छे नहीं होते हैं। बाजार में ऐसे फलों की कीमत बहुत कम मिलती है।
इन समस्याओं के मुख्य कारण :
1. पौधो में प्रतिवर्ष कृन्तन न करने से नई शाखाओं का नहीं आना।
2. खाद व उर्वरक का उचित समय पर प्रबन्ध नहीं होना।
3. सिंचाई और जल निकास का उचित प्रबन्ध नहीं होना।
4. उद्यान में बेर के देशी पौधे लगे रहना।
5. कीट व व्याधियों का नियंत्रण व प्रबन्ध नहीं करना।
6. उद्यान का घना होना व आवश्यकता से अधिक पौधे लगे होना।
7. उचित समय पर पौधों में निराई-गुड़ाई व खरपतवार नियंत्रण न करना।
8. किस्मों का उचित चयन न करना।
उद्यान का उचित प्रबन्धन :
1. उपयुक्त किस्मों का चयन : विभिन्न प्रदेशों में उगाई जाने वाली प्रमुख उन्नत किस्में इस प्रकार से है :-
उत्तर प्रदेश : बनारसी, पैबन्दी, जोगिया, नरमा, मुंडिया व गोला।
बिहार : बनारसी, नागपुरी व बेकाटा।
हरियाणा व पंजाब : उमरान, केथली, दन्दन, चौंचल, सनोर नं.-5, गोला।
राजस्थान : गोला, सेव, मुंडिया, जोगिया, उमरान।
आन्ध्रप्रदेश : दोधिया व बनारसी।
पश्चिम बंगाल : नारी केली, बनारसी, प्रोलिफिक आदि।
इनके अतिरिक्त नाजुक, सनोर नं. 1, 2, 3, गोरवी, सुरती, छुआरा, इलायची, नलगढ़ी, मिरचिया, सफेदा सलेक्टिड, रेशमी, काथाफल व पौडा आदि प्रजातियाँ विभिन्न क्षेत्रों में उगाई जाती हैं। उत्तम फल व अधिक उत्पादन लेने के लिए क्षेत्र के अनुसार ही किस्मों का चयन करना चाहिए।
अ. अ्रगेती किस्में : ये किस्में फरवरी माह में पककर तैयार हो जाती हैं।
* गोला : इसके फलों में गूदा मृदु, मध्यम रसीला, सफेद तथा मीठा होता है। फल गोल, सुनहरे रंग के औसत भार लगभग 25 ग्राम होता है। प्रति पौधा औसत उपज 85 कि.ग्रा. हो जाती है।
* सफेदा सलेक्टिड : फल गोल, सुनहरा पीला, औसत भार 22 ग्राम व औसत उपज 100 किलो प्रति पौधा होती है।
ब. मध्य मौसम की जातियाँ : बनारसी, कैथली, नाजुक, बेकाटा, जोगिया, सनोर नं.-5, रेशमी, मुंडिया, मरहेरा बेर की किस्में मार्च माह में पक जाती हैं।
* कैथली : यह किस्म कैथल क्षेत्रों में अधिकता से उगाई जाती है। फल अण्डाकार, रंग बादामी पीला, औसत भार 20 ग्राम होता है। औसत उपज 135 कि.ग्रा. प्रति पौधा हो जाती है।
* सनोर नं.-5 : फल का रंग हरा पीला, औसत भार 17 ग्राम व औसत उपज 110 किलो प्रति पौधा प्राप्त होती है।
स. पछेती जातियाँ : उमरान, दंदन, काथफल, इलायची व जेड जी-3 किस्में मध्य अप्रेल तक पक जाती हैं।
* उमरान : इसके फल काफी बडे़ आकार के होते हैं। फल लम्बाकार, औसत भार 45 ग्राम तथा फल का रंग पीला होता है। प्रति पौधा 250 किलो तक उपज दे देता है।
* दंदन : इसके फल मध्यम आकार के नरम छिलके वाले और रसीले होते हैं। इसकी पेंदी नोकदार होती है।
2. शिखर रोपण (चोटी लगाना) : अधिक पुराने व आर्थिक रूप से बेकार पौधों का या निम्न श्रेणी के देशी बेर के पौधों को शिखर रोपण द्वारा उच्च कोटि की जातियाँ अथवा फल देने वाले वृक्षों में परिवर्तित किया जा सकता है। इस क्रिया को करने के लिए अप्रेल माह में मुख्य तने को जमीन की सतह से 6 से 9 इंच छोड़कर काट देते हैं। जून में जब मुख्य तने के प्ररोह निकलते हैं। तब एक या दो सशक्त प्ररोहों को छांट लेते हैं और इन पर उच्च श्रेणी के पौधे या फल देने वाले पेड़ों पर से अच्छी कलिकाओं को चुनकर ‘टी बडिग’ द्वारा कलिकायित कर देते हैं।
3. पेड़ों की छंटाई : उद्यान को अधिक सघन, कम उत्पादक और कीट व रोग से ग्रस्त होने से बचाने के लिए उचित समय पर पेड़ों की कटाई-छंटाई करना अति आवश्यक है। बेर में फल मुख्यतः उसी वर्ष पैदा हुई शाखाओं पर पत्तियों के कक्ष में लगते हैं, अतः अधिक नई वृद्धि करने के लिए नियमित रूप से प्रतिवर्ष कृन्तन करना आवश्यक है। इससे पेड़ों पर अधिक से अधिक भाग में फल देने वाली शाखाओं को तोड़ देना चाहिए ताकि पेड़ फलों से अत्यधिक न लद जांए और फलने वाली शाखाएं अति सघन न रहें। उत्तरी भारत में ग्रीष्म ऋतु (मई) में फलन के बाद जब पौधों की पत्तियाँ झड़ जायें, तब कृन्तन का उचित समय होता है। कृन्तन करते समय अनचाही, रोगग्रस्त, सूखी टहनियाँ और आपस में रगड़ खाती हुई टहनियों को भी हटा देना चाहिए।
4. सिंचाई, निराई और गुड़ाई प्रबन्ध : सामान्यतः बेर के पेड़ों की ओर बहुत कम ध्यान दिया जाता है। जो कुछ भी हो, फलों के लगने के दिनों में उनकी उचित सिंचाई की ओर अवश्य ध्यान देना चाहिए। सिंचाई की कमी से प्रायः फल कच्ची अवस्था में ही झड़ जाते हैं। फलोद्यान को खरपतवारों से मुक्त रखने के लिए उथली जुताई-गुड़ाई करना चाहिए। आवश्यकतानुसार वर्ष में दो बार प्रथम खाद डालने के बाद व दूसरी सितम्बर-अक्टूबर में फलोद्यान की जुताई अवश्य कर देनी चाहिए।
5. खाद एवं उर्वरक प्रबन्ध : अन्य फल वृक्षों की तरह, अच्छी उपज लेने के लिए बेर को भी प्रतिवर्ष खाद तथा उर्वरकों की आवश्यकता होती है। अच्छी उपज के लिए पौधों को तालिकानुसार मात्रा में खाद तथा उर्वरक दिये जाने चाहिए। गोबर की खाद, सुपर-फास्फेट तथा म्यूरेट ऑफ पोटाश पूरी मा़त्रा एवम् यूरिया की आधी मात्रा वर्षा ऋतु में एवं कैल्शियम अमोनियम नाइट्रेट की शेष मात्रा फल बनते समय (नवम्बर) देनी चाहिए।
नियमित एवं अच्छी पैदावार के लिए निम्नलिखित वार्षिक कार्यक्रम अति सहायक सिद्ध हो सकता है :-
जनवरी : इन दिनों में पेड़ों में लगे फल अपनी विकास की अवस्था में होते हैं। इसलिए सिंचाई की ओर पर्याप्त ध्यान देना चाहिए। यदि फल मक्खियों का प्रकोप हो गया हो तो उचित नियंत्रण करना चाहिए। बेर के जंगली पेड़ों को बढ़िया किस्मों की चोटी (शिखर रोपण) लगाने के लिए इसी महीने में छांट लेना चाहिए।
फरवरी : अगेती किस्मों के फल पकने लग जाते हैं। अतः फलों को उचित प्रकार से तोड़ना चाहिए। पछेती किस्मों में फल मक्खी का प्रबन्ध करना चाहिए।
मार्च : इन दिनों में फल पूरी तरह से पक चुके होते हैं। उन्हें पेड़ों से तोड़कर बाजार में बेचने के लिए ले जाना चाहिए। मौसम के बाद काम में लाने के लिए फलों को सुखा कर रखा जा सकता है या उनसे कंद तैयार किया जा सकता है। उत्तरी भारत में दिसम्बर में छांटे गये जंगली बेर के पेड़ों में इस महीने में वांछित किस्म की कलियाँ लगा देनी चाहिए।
अप्रेल : यदि बेर नाशक भृंग ने आक्रमण कर दिया हो तो उसकी रोकथाम करनी चाहिए। बेर के पौधे उगाने के लिए स्वस्थ जंगली बेरों से एकत्र किये गये बीजों को जहाँ पेड़ कली लगा कर उगाने हों वहीं पर बो देना चाहिए।
मई : इस महीने में बेर के पेड़ अपनी पत्तियाँ गिराते हैं और विश्राम करते हैं जिनकी चोटी को जनवरी में काट दिया गया था, उन पर कालिकायन कर देना चाहिए।
जून : हर एक पेड़ में चार-पांच टोकरी गोबर की खाद देनी चाहिए और आवश्यक निराई-गुड़ाई कर देनी चाहिए।
जुलाई : गमलों मे उगाये गये पौधों को खेत में उचित अन्तर पर लगा दिया जाता है और बाद में वहीं पर उनमें कलियाँ लगाई जाती हैं। बीज बोकर उगाये गये पौधों पर कलिकायन भी इसी माह में किया जा सकता है।
अगस्त : गमलों में उगाये गये बेर के पौधों को गमलों से निकालकर खेतों में लगाने का काम चलता रहता है। इस माह में भी कलिकायन कर सकते हैं।
सितम्बर : पेड़ों के आस-पास की भूमि की जुताई कर देनी चाहिए व जल संरक्षण के सभी उपाय करने चाहिए व उद्यान में साफ-सफाई करते रहना चाहिए, छाछिया रोग फैल रहा हो तो अतिशीघ्र उपचार करना चाहिए।
अक्टूबर : फलों का लगना शुरू हो जाता है। इसलिये उद्यानों का उचित प्रबन्ध करें, जल निकास की पूर्ण व्यवस्था रखनी चाहिए।
नवम्बर : इन दिनों में मध्य भारत में बेर पकने लगते हैं। उन्हें पक्षियों से बचाना चाहिए। यदि फलनाशक मक्खी ने आक्रमण कर दिया हो तो उसकी रोकथाम के लिए आवश्यक उपाय करना चाहिए।
दिसम्बर : उत्तरी भारत में जिन जंगली बेर के पेड़ों में उन्नत किस्म की कली लगाकर तैयार करनी होती है, उनका तने से ऊपर का भाग इस महीने में काट दिया जाता है। फल देते हुए पेड़ों की ऊँंचाई करनी चाहिए, क्योंकि इन दिनों में फल विकास की अवस्था में रहते हैं। फल झड़ाव हो तो प्लनोफिक्स (5 मिली. प्रति 15 लीटर पानी ) का छिड़काव करना चाहिए।
पौध संरक्षण : जलवायु व भूमि के अनुकुल बेर का उत्पादन व गुणों में अपना ही महत्व है जो कि एक टिकाऊ खेती साबित हो रही है। यह अधिक तापक्रम व कम पानी में पैदावार देती है। लेकिन उचित पौध संरक्षण न करने पर फलों की पैदावार व गुणों पर बुरा प्रभाव पड़ता है जिससे किसान भाईयों को आर्थिक नुकसान सहना पड़ता है। अगर उचित समय पर फसल सुरक्षा पर ध्यान नहीं दिया जाये तो कीट व बीमारियों से होने वाले करीब 20 प्रतिशत नुकसान से बचा जा सकता है। इसमें निम्नलिखित कीड़े व बीमारियाँ लगती हैं जिनसे बचाकर पैदावार व गुणों की बढ़ोत्तरी हो सकती है।
कीडे़ : कीड़ों का प्रभाव बेर के फसल पर जब छोटी-छोटी पत्तियाँ आती हैं तथा फलों के पकने तक होता है जिसके कारण उपज पर भारी प्रभाव पड़ता है।
1. छाल भक्षक कीट : यह कीट फल वाले पौधों की छाल को खाते हैं जिससे पौधों का रस बहाव कम हो जाता है, पौधे की टहनियाँ सूखने लगती हैं या कमजोर हो जाती हैं जो हल्की हवा या फलभार के झुकावे के कारण टूट जाती हैं और पैदावार में कमी हो जाती है। यह कीट छिपने के लिए टहनी के अंदर सुरंग बना लेते हैं, जो दिन के समय सुरंग के अन्दर छिपा रहता है और रात के समय फल वाले पौधों की छाल खाता है।
नियंत्रण :
* इस कीट के नियंत्रण के लिए मोनोक्रोटोफॉस 36 एस.एल. 2 मि.ली./लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव, बेर की कटाई-छंटाई के पश्चात् नई पत्तियाँ निकलने तक करना चाहिए।
* सुरंग साफ करके पिचकारी की सहायता से 5 मि.ली. कैरोसिन सुरंगों में डालें या छिद्रों में क्लोराफार्म में रूई डुबो कर डाल दें और गीली चिकनी मिट्टी से लेप लगाकर छिद्र को बंद कर दें जिससे कीट सुरंग के अन्दर ही नष्ट हो जायें।
* रोगग्रस्त टहनियों को काटकर एकत्रित करके अलग किसी स्थान पर जला दें जिससे अन्दर के समस्त कीट जलकर नष्ट हो जायेंगे।
2. चैफर बीटल : यह भी बेर की फसल को नुकसान पहुंचाने वाला प्रमुख कीट है जिसका प्रभाव बरसात के समय हो जाता है। ये कीट बेर की कोमल पत्तियों को खाता है जिससे पौधे की वृद्धि प्रभावित होती है और पैदावार पर असर पड़ता है।
इस कीट से फसल को बचाने के लिए बरसात के प्रारंभ में मोनोक्रोटाफॅास 36 एस.एल. 1 मि.ली./लीटर पानी मे घोलकर छिड़काव करें या कार्बेरिल 50 डब्ल्यू.पी. 4 ग्राम/लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें।
3. फलमक्खी : इस कीट के मैगट ही हानि पहुंचाते हैं, जिसका एक सिरा पतला तथा दूसरा सिरा चौड़ा होता है। जब फल मटर के आकार के हो जाते हैं तो मादा मक्खी अपने अण्डरोपक के द्वारा फलों मे छेद करके अण्डे देती है। अण्डे फूटने के पश्चात् मैगट निकलते हैं जो फल के अन्दर का गूदा खाकर फल में छेद कर देते हैं। खाया गया भाग पतला हो जाता है तथा फल भी गिर जाते हैं। मैगट एक फल से दूसरे फल में घुस जाते हैं और पैदावार में कमी आ जाती है।
नियंत्रण :
1. गर्मियों में मिट्टी पलटने वाले हल से गहरी जुताई करें ताकि कृमिकोष बाहर आ जावें, जो धूप या चिड़ियों के द्वारा नष्ट हो जायेंगे जिससे फल मक्खी बन ही न पाये।
2. क्षतिग्रस्त फलों को एकत्रित करके मिट्टी के तेल में डुबो दें जिससे मैगट नष्ट हो जायेंगे।
3. बेर के बगीचे के आस-पास जंगली झाड़ियों को हटा दें तथा रोग प्रभावित फलों को नष्ट कर दें।
4. जब फल मटर के आकार के हों उसी समय मोनोक्रोटाफॅास 36 एस.एल. 1 मि.ली./लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करें, दूसरा छिड़काव 15 दिन बाद दोहराएँ।
बीमारियाँ : बेर की फसल को कीट व बीमारियों से भंयकर नुकसान होता है। कभी-कभी बीमारी से बेर की सम्पूर्ण फसल नष्ट हो जाती है जिससे काश्तकार को भारी नुकसान झेलना पड़ता है।
1. छाछ्या रोग : यह एक भंयकर रोग है जिसमें फलों, पत्तियों व तनों पर सफेद चूर्ण जैसी पर्त दिखायी देती है। फल छोटी अवस्था मे पीले पड़कर सिकुड़ जाते हैं और गिर जाते हैं। इसका प्रभाव जाडे़ के दिनां मे बादल होने पर अधिक होता है।
नियंत्रण : इस रोग से बचाने के लिए डायनोकेप 48 ई.सी. नामक दवा 1 मि.ली./लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करना चाहिए, पहला छिड़काव फूल आने से पहले, दूसरा व तीसरा छिड़काव फल बनने के बाद, 15 दिन के अन्तराल पर करें। घुलनयुक्त सल्फर के छिड़काव से भी छाछ्या रोग से फसल को बचाया जा सकता है।
2. जड़ गलन : यह रोग पौधे की प्रारम्भिक अवस्था में जब पौधे छोटे होते हैं उस समय लगता है जिससे पौधे की जडे़ं सड़ जाती हैं या भूमि के समीप तने कमजोर होकर पौधे सूख जाते हैं।
नियंत्रण :
1. नर्सरी के लिए जगह का चुनाव ऊँची जगह पर करें जहाँ पानी न रूकता हो, मिट्टी भी पोली व भूरभूरी हो जो पानी को जल्दी सोख लेती है।
2. बीज को बोने से पहले मिट्टी को केप्टान दो ग्राम/लीटर पानी में घोलकर उपचारित करें, जिससे भूमि के कवक नष्ट हो जायें।
3. बीज को थायरम या केप्टान नामक दवा 2 ग्राम/कि.ग्रा. बीज की दर से उपचारित करके बीज की बुवाई करें।
4. यदि बीज का उपचार नहीं किया है तो पौधों की छोटी अवस्था पर केप्टान या थायरम 2 ग्राम/लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करें।
पत्ती धब्बा झुलसा रोग : यह भी फफूंदी जनित रोग है जो नवम्बर-दिसम्बर के महीने में फैलता है। इस रोग से पत्तियों के ऊपर सफेद रंग के धब्बे दिखायी देते हैं। बाद में ये धब्बे आकार में बढ़कर पूरी पत्ती पर फैल जाते हैं। पत्तियाँ पीली पड़कर सूख कर गिर जाती हैं।
नियंत्रण : इस रोग से बचाने के लिए रोग की आरम्भिक अवस्था में सफेद धब्बे दिखायी दें उसी समय मैन्कोजेब 3 ग्राम/लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करें। दूसरा छिड़काव 15 दिन बाद अवश्य करें। इस प्रकार से कर्षण क्रियायें करके, कीटनाशक व फफूंदीनाशक दवाएं उचित समय पर अपने बगीचे में छिड़ककर फसल को होने वाले नुकसान से बचाया जा सकता है और अधिक से अधिक आमदनी कमा सकते हैं तथा आर्थिक लाभ प्राप्त कर सकते हैं।
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