आँवला की उन्नत बागवानी
आंवले का व्यावसायिक दृष्टि से महत्व बढ़ता जा रहा है। इसके फल का स्वाद अम्लीय तथा कसैलापन लिये हुए होता है जिसमें विटामिन ‘सी‘ प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होता है। इसका उपयोग अधिकतर मुरब्बा एवं चटनी के रूप में किया जाता है। आयुर्वेद तथा यूनानी दवाओं में भी इसका प्रयोग होता है। राजस्थान में इसकी खेती सभी जिलों में की जा सकती है।
जलवायु एवं भूमि : आंवला की खेती नम तथा शुष्क दोनों प्रकार की जलवायु में सफलतापूर्वक की जा सकती है। यह उपोष्ण जलवायु में बहुत अच्छी तरह पनपता है, परन्तु उष्ण जलवायु में भी अच्छी तरह फलता है। प्रारम्भिक अवस्था के दो तीन वर्षों तक पौधे को लू तथा पाले से बचाना आवश्यक है बाद में विशेष प्रभाव नहीं पड़ता है।
इसके पौधे अधिक सहिष्णु होने के कारण विभिन्न प्रकार की मिट्टी में उत्पन्न किये जा सकते हैं। इसके लिये करीब 2 मीटर गहरी भूमि की आवश्यकता होती है। अधिक बलुई भूमि में इसके वृक्ष अच्छी प्रकार नहीं पनप पाते हैं। इसके लिये गहरी दोमट भूमि सर्वोत्तम है। क्षारीय भूमियों में (7.0 से 9.0 पी.एच.) भी सफलतापूर्वक उगाया जा सकता है।
उन्नत किस्में :
बनारसी : इसके फल बड़े आकार के (औसत 5 से.मी.) होते हैं। औसतन एक वृक्ष से 200 किलो फल प्राप्ति संभव है। फलों में विटामिन ‘सी‘ की मात्रा 417 मिलीग्राम प्रति 100 ग्राम एवं कुल घुलनशील ठोस पदार्थ की मात्रा 13.2 प्रतिशत होती है।
चकैया : फल बड़े आकार के (3 से 4 सेमी) एवं फलों का रंग पकने पर हरा होता है। अचार बनाने के लिये उपयुक्त है। फलों में विटामिन ‘सी‘ की मात्रा 523 मिलीग्राम प्रति 100 ग्राम एवं कुल घुलनशील ठोस पदार्थ की मात्रा 10.9 प्रतिशत होती है।
कृष्णा (एन.ए.-5) : फल मध्यम आकार (6 से 8 से.मी.) धारियों वाले, लाल रंग के होते हैं जिन पर छोटे-छोटे धब्बे होते हैं। फलों में रेशे कम होते हैं एवं फल पारदर्शी होते हैं।
नीलम (एन.ए.-7) : यह किस्म सबसे जल्दी फल देना शुरू करती है। इसके फल बड़े आकार के एवं औसत वजन प्रति फल लगभग 44 ग्राम होता है। फलों में रेशे का प्रतिशत 1.5 प्रतिशत होता है व फल हरापन लिये हुए सफेद होते हैं।
बलवंत, आनन्द 2 व आनन्द 3 नवीन किस्में हैं जिनके पौधे क्रमशः फैजाबाद (यू.पी.) व आनन्द (गुजरात) में उपलब्ध हैं।
प्रवर्धन : इसका प्रवर्धन कलिकायन विधि द्वारा किया जाता है। कलिकायन विधि सस्ती, अच्छी एवं सरल है। जून माह में चश्मा चढ़ाने में काफी सफलता मिलती है। पेच कलिकायन सबसे अच्छी विधि है। मूल वृन्त के लिये बीजू पौधा लगभग छः माह से एक वर्ष पुराना होना चाहिये। स्वस्थ कलिका को पेच कलिकायन द्वारा जून के शूरू में लगा दिया जाता है। इसमें लगभग 70 प्रतिशत सफलता मिलती है। पुराने वृक्षों का शिखर रोपण भी किया जा सकता है। बीजू पेड़ों की द्वितीय शाखाओं को ढाई फुट ऊपर से मार्च के महीने में काट दिया जाता है। इससे निकले हुए नये प्ररोहों पर कलिकायन द्वारा उन्नत किस्म की कलिका लगा दी जाती है। इससे निम्न कोटि के बीजू पेड़ उच्च किस्म में परिवर्तित किये जा सकते है।
पौधे लगाने की विधि : इसके पौधों को 8X8 मीटर की दूरी पर जून-जुलाई के महिने में पहले से तैयार किये गये गड्डों में लगाया जाता है। सिंचाई के लिए पानी की सुविधा होने पर पौधे फरवरी-मार्च में भी लगाये जा सकते हैं। पेड़ लगाने के लिए 1ग1ग1 मीटर आकार का गड्डा निश्चित दूरी पर खोदा जाता है। इन गड्डों में 20 से 25 कि.ग्रा. गोबर की सड़ी खाद तथा 1 किलो सुपर फॉस्फेट, 50 से 100 ग्राम क्यूनॉलफॉस 1.5 प्रतिशत चूर्ण प्रति गड्डे के हिसाब से मिलाकर गड्डों को भरकर पौधा लगाया जाता है। क्षारीय भूमि में सिफारिश के अनुसार जिप्सम का प्रयोग अवश्य किया जाना चाहिए।
अन्तराशस्य : प्रारम्भ के तीन वर्षों में कुष्माण्ड कुल की सब्जियों के अतिरिक्त सभी प्रकार की सब्जियाँ ग्वार, मटर, चौला, मिर्च, बैंगन, प्याज आदि ली जा सकती हैं।
सिंचाई : आंवला के पौधे को वर्षा एवं सर्द ऋतु में सिंचाई की आवश्यकता नहीं पड़ती है। मार्च के महीने में जब नई कोपलें निकलने लगें तो सिंचाई करना प्रारम्भ कर देना चाहिये। जून माह तक कुल पन्द्रह दिन के अन्तराल से चार-पांच सिंचाईयों की आवश्यकता होती है।
खाद एव उर्वरक : आंवले के पौधे को निम्न अनुसार खाद एव उर्वरक देनी चाहियेः
पेड़ों की आयु 1 वर्ष गोबर की खाद 10 किलोग्राम यूरिया 220 ग्राम सुपर फॉस्फेट 350 ग्राम म्यूरेट ऑफ पोटाश 125 ग्राम
पेड़ों की आयु 2 वर्ष गोबर की खाद 20 किलोग्राम यूरिया 440 ग्राम सुपर फॉस्फेट 700 ग्राम म्यूरेट ऑफ पोटाश 250 ग्राम
पेड़ों की आयु 3 वर्ष गोबर की खाद 30 किलोग्राम यूरिया 660 ग्राम सुपर फॉस्फेट 1050 ग्राम म्यूरेट ऑफ पोटाश 375 ग्राम
पेड़ों की आयु 4 वर्ष गोबर की खाद 40 किलोग्राम यूरिया 880 ग्राम सुपर फॉस्फेट 1400 ग्राम म्यूरेट ऑफ पोटाश 375 ग्राम
पेड़ों की आयु 5 वर्ष गोबर की खाद 50 किलोग्राम यूरिया 1100 ग्राम सुपर फॉस्फेट 1750 ग्राम म्यूरेट ऑफ पोटाश 375 ग्राम
जनवरी-फरवरी के महीने में पेड़ के चारों तरफ फैलाव में नाली बनाकर खाद एवं उर्वरक देना चाहिये। गोबर की खाद, सुपरफॉस्फेट, पोटाश की मात्रा तथा यूरिया की आधी मात्रा जनवरी-फरवरी में दें तथा यूरिया की शेष मात्रा अगस्त में देना लाभदायक है। इसके अतिरिक्त बोरेक्स 0.6 प्रतिशत घोल का छिड़काव फूल लगने की क्रिया को तेज करता है तथा फलों को झड़ने से बचाता है।
कीट प्रबंध :
छाल भक्षक कीट : यह एक हानिकारक कीट है। कीट वृक्ष की छाल को खाता है तथा छिपने के लिये डाली में गहराई तक सुरंग बना डालता है जिसके फलस्वरूप डाल/शाखा कमजोर पड़ जाती है। नियंत्रण हेतु सूखी शाखाओं को काट कर जला देवें। मोनोक्रोटोफॉस 36 एस.एल. 2 मि.ली. का प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर शाखाओं तथा डालियों पर छिड़काव करें तथा साथ ही सुरंग को साफ करके किसी पिचकारी की सहायता से 3 से 5 मि.ली. मिट्टी का तेल प्रति सुरंग डाले या रूई का फाहा बनाकर सुरंग के अन्दर रख दें एवं बाद में ऊपर से सुरंग को गीली मिट्टी से बन्द कर देंवे।
व्याधि प्रबंध :
आंवले का रोली रोग (रस्ट) : इसके प्रकोप से अगस्त माह में पत्तियों पर रोली के धब्बे बन जाते हैं। पत्तों पर काले धब्बे बनते है जो कभी-कभी पूरे फल पर फैल जाते हैं। रोगी फल पकने से पहले ही झड़ जाते है जिससे बहुत हानि होती है। नियंत्रण हेतु बेलीटोन 1 ग्राम या घुलनशीन गंधक अथवा क्लोरोथालेनिल 2 ग्राम प्रति लीटर पानी के हिसाब से तीन छिड़काव जुलाई माह से 15 से 30 दिन के अन्तराल से करने पर फलों के रोग का लगभग पूर्ण निंयत्रण हो जाता है।
आन्तरिक काला धब्बा : यह बोरोन की कमी से होता है व फल अन्दर से कालापन लिये हुए होता है। इसके नियंत्रण हेतु 6 ग्राम बोरेक्स प्रति लीटर पानी के हिसाब से छिड़काव करें।
फलन : आंवला में बसंत ऋतु (फरवरी-मार्च) में फूल आते हैं। फूल तीन सप्ताह तक खिलते हैं। फूल निश्चित बढ़वार वाली शाखाओं पर आते हैं। मादा फूल शाखा के ऊपरी सतह पर तथा नर फूल शाखा के निचली सतह पर आते हैं। फूलों में पर-परागण की क्रिया से सेचन होता है। निषेचन के बाद युग्मक सुषुप्तावस्था में चले जाते हैं जिसे युग्मक सुषुप्त भी कहते हैं। गर्मी में फलों में किसी भी प्रकार की वृद्धि का आभास नहीं होता है। युग्मक की सुषुप्तावस्था जुलाई-अगस्त में समाप्त हो जाती है तथा उसके बाद फलों का विकास शुरू हो जाता है। शोध कार्यों से पता चलता है कि युग्मक सुषुप्तावस्था ऑक्सिन की अधिक मात्रा होने के कारण होती है। सुषुप्तावस्था में जिब्रेलिन, साइटोसीन एवं वृद्धि निरोधक रसायन की मात्रा कम पाई जाती है। जैसे ही ऑक्सिन की मात्रा कम होती है, सुषुप्तावस्था समाप्त हो जाती है और फलों का विकास शुरू हो जाता है। फल नवम्बर-दिसम्बर में परिपक्व हो जाते हैं। आंवलों में स्वयं बध्यता भी देखी गई है। अतः अच्छे फल के लिय परागक किस्म लगाना आवश्यक होता है। चकैया, एन.ए. 6 और कृष्णा किस्म एन.ए.7 के लिये परागक का कार्य करती है। अच्छे फलन के लिये आंवला के बाग में 5 प्रतिशत परागक किस्म को लगाना चाहिए।
फलों की तुड़ाई एवं उपज : कलमी आंवले का पेड़ 4 से 5 वर्ष की आयु में फल देने लगता है। फूल मार्च-अप्रैल में आते हैं तथा फल नवम्बर-दिसम्बर में तोड़ने के लायक हो जाते हैं। एक पूर्ण विकसित कलमी आंवले का पेड़ 50-100 किलो फल देता है।