फालसा की उन्नत बागवानी
फालसा के फल छोटे अम्लीय स्वाद के होते हैं। पकने पर फलों का रंग गहरा लाल और बैंगनी होता है। फलों में विटामिन ए और सी तथा खनिज लवण (फास्फोरस एवं लोहा) प्रचुर मात्रा में पाया जाता है। राजस्थान में इसकी खेती जयपुर, उदयपुर, अजमेर, जोधपुर आदि जिलों में सफलतापूर्वक की जा सकती है।
जलवायु एवं भूमि : गर्म तथा सूखी जलवायु वाले क्षेत्रों में जहाँ अधिकांश फलों के वृक्ष उगाने में कठिनाई होती है, यह भली-भाँति उगाया जा सकता है। इसके अतिरिक्त समुद्रतलीय नम जलवायु वाले प्रदेशों में भी इसका उत्पादन सरलतापूर्वक हो सकता है और मैदानी भागों में तो इसके उगाने में कोई कठिनाई ही नहीं होती है। इसके लिए 1.5 मीटर गहरी उपजाऊ दोमट मिट्टी विशेष रूप से अच्छी मानी जाती है परन्तु साधारणतया यह लगभग सभी प्रकार की मिट्टीयों में सफलतापूर्वक उगाया जा सकता है। इसी कारण लोग इसे पड़त भूमि, रास्तों के सहारे अथवा अन्तराशस्य के रूप में ही उगाते हैं।
खाद एवं उर्वरक : फालसा लगाते समय 8-10 किग्रा. गोबर की सड़ी खाद प्रति पौधे के हिसाब से प्रति गड्डे में देनी चाहिए और इतनी ही मात्रा में फिर फरवरी में देनी चाहिए। फरवरी के महीने में काट-छांट के बाद प्रति पौधा 10-15 किग्रा. सड़ी हुई गोबर की खाद तथा 40-50 ग्राम नत्रजन, 30 ग्राम फॉस्फोरस तथा 30 ग्राम पोटाश उर्वरक देना चाहिए।
प्रवर्धन : फालसे के पौध केवल बीज से ही तैयार किये जाते हैं। इसके बीज बोने का समय वही होता है जो फालसा के फल पकने का समय होता है क्योंकि इस बीज को फल से निकालकर रख देने से उसकी जमाव शक्ति क्षीण हो जाती है। अतः पके बड़े फलों से मई में बीज निकालकर तुरन्त ही बो देना अधिक हितकर है। इस विधि से पौधे अधिक स्वस्थ रहते हैं।
उन्नत किस्में : संकरी और शरबती छोटी किस्में अब तक प्रचलित हैं। संकरी जाति के पौधे बड़े होते हैं किन्तु फल छोटे और खट्टे होते हैं। शरबती जाति के फालसे के पौधे फैलावदार होते हैं। फल बड़े़े, मीठे व रसदार होते हैं जिन्हें स्क्वैश या शरबत बनाने के लिए उपयोग में लाया जाता है।
रोपण : फालसे के पौधे 2-2.5 मीटर की दूरी पर लगाने चाहिए। फरवरी में पौधों का लगाना सर्वोत्तम रहता है क्योंकि इस समय पौधे सुप्तावस्था में रहते हैं तथा पौधों को बिना पिण्डी लगा सकते हैं। इससे अधिक सफलता मिलती है। जुलाई-अगस्त में भी पौधों को लगाया जा सकता है।
सिंचाई : सहिष्णु स्वभाव का होने के कारण फालसा यद्यपि अधिक सिंचाई नहीं चाहता फिर भी जनवरी से मई तक यदि माह में दो बार इसे पानी मिल जाए तो निश्चय ही फलन में वृद्धि हो जाती है। निराई-गुड़ाई हर सिंचाई के बाद कर देनी चाहिए।
कटाई-छंटाई : फालसे के पौधे जाड़े की ऋतु में यद्यपि पूरी तरह तो अपनी पत्तियाँ नहीं गिराते फिर भी अधिकाश पत्ते झड़ जाते हैं और यही समय इनकी प्रूनिंग करने के लिए उपयुक्त है। यह क्रिया आधे दिसम्बर से जनवरी माह तक की जा सकती है। प्रति तीन-चार वर्ष के बाद पेड़ की कड़ी छंटाई कर देनी चाहिए। इससे पौधों में संचित खाद्य का फलन में उपयोग हो जाता है।
फलन तथा फलों को तोड़ना : पौधे स्थायी जगहों पर स्थानान्तरित किए जाने के दूसरे वर्ष ही फलने लगते हैं। इसके पौधे अप्रैल-मई में फलते हैं और जून तक पके हुए फल उपलब्ध होते हैं। फल धीरे-धीरे पकते रहते हैं तथा सब एक साथ नहीं पकते, इससे थोड़े-थोड़े पके फल प्रतिदिन चुनने पड़ते हैं।
कीट एवं ब्याधि प्रबंध :
छाल खाने वाला कीड़ा : यह कीड़ा फालसे के लिए तो विशेष हानिकारक नहीं होता किन्तु इसके पौधों पर पलकर अन्य पौधों को हानि पहुँचाता है।
पत्ती धब्बा रोग : इससे फालसे की पत्तियों पर धब्बे पड़ जाते हैं। रोगग्रस्त पेड़ों के पत्ते तोड़कर जला देने चाहिए तथा ब्लाइटोम्स 50 के 0.2 प्रतिशत घोल के छिड़काव से रोग नियंत्रित किया जा सकता है।
भण्डारण, विपणन तथा उपयोग : फालसा के फलों में भण्डारण क्षमता कम होती है। फल तोड़ने के 24 घण्टे के अन्दर-अन्दर इसका उपयोग कर लेना चाहिए। फल जब गहरे लाल या बैंगनी रंग के हो जाते हैं तब इनके तोड़ने की अवस्था होती है। इसी अवस्था में फलों में मिठास अधिक होती है।
फालसे के पके फल खाये जाते हैं। इनका प्रभाव शीतल होता है। फालसा का शर्बत बनाकर पिया जाता है जो गर्मी के मौसम में एक अनुकूल पेय है। यह स्फूर्तिदायक, जलन, प्यास को शान्त करने वाला पित्त विकारनाशक है। इसका रस निकालकर संरक्षित किया जा सकता है। जो अन्य समयों में भी उपयोग किया जा सकता है।
गले के रोगों में भी फालसा उपयोगी समझा जाता है। साथ ही रक्त विकार, ज्वर, अपच में भी लाभकारी है। इसकी जड़ की छाल गठिया रोगों में और पत्तियाँ, फोड़े, फुँसियों पर लगाने में औषधि के रूप में प्रयोग की जाती है।
उपज : पाँच साल के स्वस्थ पौधे से लगभग 4-5 कि.ग्रा. फल प्रति पौधे से प्राप्त हो जाते हैं।