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नींबू प्रजाति के फलों की खेती

द्वारा, दिनांक 18-10-2019 06:07 PM को 755

नींबू प्रजाति के फलों की खेती

भारतवर्ष में उगाये जाने वाले विभिन्न फलों में नींबू प्रजाति के फलों का महत्वपूर्ण स्थान है। इनमें विटामिन-ए, बी, सी, एवं खनिज तत्व प्रचुर मात्रा में पाये जाते हैं। नींबू वर्गीय फलों में मोसम्बी, माल्टा, सन्तरा व नींबू आदि प्रमुख है। 

जलवायु : नींबू प्रजाति के फल विभिन्न प्रकार की जलवायु में उगाये जाते हैं। मौसम्बी व माल्टा के उत्पादन के लिये गर्मी में अच्छी गर्मी व सर्दियों में अच्छी सर्दी एवं शुष्क जलवायु जहाँ पर वर्षा 50-60 से.मी. हो, उपयुक्त रहती है। सन्तरा एवं नींबू के लिये गर्म, पाला रहित तथा नम जलवायु जहाँ वर्षा 100-150 से.मी. होती है, उपयुक्त रहती है। नींबू सभी जिलों में उगाया जा सकता है।

भूमि : नींबू प्रजाति के फलों की खेती कई प्रकार की भूमि में की जा सकती है लेकिन अधिक उपजाऊ दोमट भूमि जो दो से सवा दो मीटर गहरी हो, इसकी खेती के लिये उपयुक्त है।  सन्तरा, मौसम्बी और माल्टा के लिये बलुई मिट्टी जिसमें जल धारण क्षमता नहीं होती है इसके लिये विशेष उपयुक्त नहीं होती। जल निकास युक्त चिकनी मिट्टी जिसमें जल धारण क्षमता अधिक होती है इसकी खेती के लिए उपयुक्त रहती है। इन फलों की खेती के लिये भूमि का चुनाव करते समय इस बात का विशेष ध्यान देना चाहिये कि जमीन लवणीय या क्षारीय नहीं हो।

प्रवर्धन : नींबू प्रजाति के फलों का प्रवर्धन बीज तथा वानस्पतिक दोनों ही तरीकों द्वारा किया जाता है। बीज द्वारा पौधे तैयार करने के लिये उन्हें जुलाई, अगस्त या फरवरी में बोते हैं। नीबू में गूटी लगाने का उपयुक्त समय जुलाई का महीना है। मौसम्बी तथा माल्टा के पौधों को कलिकायन से तैयार किया जाता है। इसके लिये पहले बीज से मूलवृन्त तैयार करते हैं। बीज हमेशा रफलेमन (जमबेरी तथा जट्टी खट्टी) के स्वस्थ एवं पके फलों से लेने चाहिये। बीजों को फलों से निकालने के बाद उन्हें तुरन्त क्यारियों में बो देना चाहिये। बीज बोने हेतु फरवरी का समय उपयुक्त रहता है। जब मूलवृन्त एक वर्ष का हो जाये तब उन पर ही कलिकायन (बडिंग) करें। नींबू प्रजाति के पौधे बीज से भी तैयार किये जा सकते हैं। बीजों को फलों से निकालने के बाद तुरन्त नर्सरी में बुवाई कर देनी चाहिये। नर्सरी में पौधे एक वर्ष के होने के बाद ही खेत में रोपाई करनी चाहिये।

उन्नत किस्में : नींबू प्रजाति के विभिन्न वर्गों में उपयोग में लाई जाने वाली प्रमुख प्रजातियों का विवरण निम्नलिखित हैः

माल्टा वर्ग :

जाफा : फल का आकर गोल, लम्बाई में 6.37 से.मी. और चौड़ाई में 6.51 से.मी. तथा पकने पर लाल नारंगी रंग का हो जाता है। औसत वजन 140 से 190 ग्राम, रस की मात्रा 30 से 35 प्रतिशत होती है। कुल घुलनशील तत्व 9 से 10 प्रतिशत होते हैं एवं बीजों की संख्या 5 से 10 तक होती है। छिलके की मोटाई 0.40 से.मी. होती है एवं फल नवम्बर-दिसम्बर में पकता है। फल उत्पादन 125 क्विंटल प्रति हैक्टर होता है।

मौसम्बी : फल छोटे से मध्यम आकार का जिसकी लम्बाई 6.07 से.मी. और चौड़ाई 6.25 से.मी. होती है। फल के ऊपर लम्बाई में धारियाँ और तले पर गोल छल्ला होता है। फल पूर्ण पकने पर गहरे पीले रंग के हो जाते है जिनमें रस की मात्रा 30 से 35 प्रतिशत होती है। छिलके की मोटाई 0.35 से.मी. होती है। फल में खटास 0.25 प्रतिशत और मिठास 10 से 12 प्रतिशत होती है। यह किस्म नवम्बर-दिसम्बर माह में पकती है। फलों की उपज 85 से 100 क्विंटल प्रति हैक्टर होती है।

संतरा वर्ग :

किन्नों : इसका फल गोल, मध्यम एवं चपटापन लिये हुए नांरगी रंग का होता है। फल का वजन 125 से 175 ग्राम तक होता है। पकने पर छिलका पतला, चमकदार होता है गूदा नारंगी, पीला तथा रस की मात्रा 40 से 45 प्रतिशत होती है। इसकी सुगन्ध मनमोहक, घुलनशील लवण 9 से 15 प्रतिशत, अम्लता 0.75 से 1.20 प्रतिशत तक होती है। फल जनवरी में पकते हैं तथा पौधा रोपण के 5 वर्ष पश्चात् 125 किलो से 150 किलो प्र्रति पौधा उपज प्राप्त होती है जो 5 वर्ष की उम्र के पश्चात् होती है।

नागपुर संतरा : राजस्थान के झालावाड़ क्षेत्र की मुख्य किस्म है जो हरे रंग की हल्के वजन वाली, चिकनी सतहयुक्त, 10-15 फांके व भरपूर रस वाली किस्म है जो जनवरी-फरवरी में पककर तैयार हो जाती है।

नींबू वर्ग :

कागजी नींबू : इनके फल मध्यम गोल आकार के होते हैं। छिलका पतला 0.24 से.मी. एवं रस की मात्रा 45 प्रतिशत होती है। इसमें घुलनशील लवण 7 प्रतिशत तथा अम्लता 3 से 5 प्रतिशत होती है। फल पकने का समय जुलाई-अगस्त और मार्च होता है। पैदावार 40 से 50 किलो प्रति पौधा होती है।

पंत लेमन : पंतनगर से कागजी फलों से चयनित किस्म जिसका छिलका पतला होता है।

पौधे लगाने की विधि : नींबू वर्गीय पौधे 5 X  5 मीटर की दूरी पर लगावें तथा 6 से 8 मीटर की दूरी पर मौसम्बी, सन्तरा आदि के लिये 90 X 90 X 90 से.मी. आकार के गड्डे दो माह पूर्व अर्थात मई, जून के महीने में खोद लेने चाहिये। गड्डों में 25 किलो गोबर की खाद तथा एक किलो सुपरफॉस्फेट व 50 से 100 ग्राम क्यूनॉलफॉस 1.5 प्रतिशत चूर्ण गड्डों की मिट्टी में मिलाकर भर देनी चाहिये। पौध लगाने का सबसे उपयुक्त समय जुलाई-अगस्त रहता है। जहाँ पानी की अच्छी सुविधा हो वहाँ इनको फरवरी माह में भी पौधे लगाये जा सकते हैं।

खाद एवं उर्वरक : नींबू, माल्टा, मौसम्बी व संतरा में खाद व उर्वरक मात्रा प्रति पौधा (कि.ग्रा.)

प्रथम वर्ष गोबर की खाद 15 सुपर फॉस्फेट 0.250 म्यूरेट ऑफ पोटाश 0.100 यूरिया 0.125

द्वितीय वर्ष गोबर की खाद 30 सुपर फॉस्फेट 0.500 म्यूरेट ऑफ पोटाश 0.100 यूरिया 0.250

तृतीय वर्ष गोबर की खाद 45 सुपर फॉस्फेट 0.750 म्यूरेट ऑफ पोटाश 0.200 यूरिया 0.375

चतुर्थ वर्ष गोबर की खाद 60 सुपर फॉस्फेट 1.00 म्यूरेट ऑफ पोटाश 0.200 यूरिया 0.500

पंचम वर्ष एवं बाद में गोबर की खाद 75 सुपर फॉस्फेट 1.25 म्यूरेट ऑफ पोटाश 0.400 यूरिया 0.625 

गोबर की खाद सुपर फास्फेट, म्यूरेट ऑफ पोटाश की पूरी व यूरिया की आधी मात्रा दिसम्बर जनवरी में तथा शेष आधी यूरिया जून-जुलाई माह में देवें।

सूक्ष्म तत्व : नींबू वर्गीय फलों में गौण तत्वों की कमी से वृक्षों में अनेक विकार उत्पन्न हो जाते हैं, इनमें जिंक, बोरोन, मैंगनीज, तांबा तथा लोहा मुख्य है। जिंक की कमी से पत्तियों का छोटा होना तथा पत्तियों की नसों के बीच का रंग हल्का पड़ना, फलों का गिरना, वृद्धि न होना आदि लक्षण प्रमुख है। मैंगनीज की कमी के कारण पत्तियों के मध्यम का रंग धीरे धीरे हल्का हो जाता है। यह लक्षण पूर्ण विकसित पत्तियों पर स्पष्ट दिखाई देते हैं। पौधों में इन तत्वों की कमी के दुष्प्रभाव को रोकने के लिये गौण तत्वों का छिड़काव पेड़ों पर फरवरी व जुलाई में करना चाहिये।  इन तत्वों को अलग अलग घोलने के बाद पानी में मिलाना चाहिये।

इसके लिये जिंक सल्फेट 500 ग्राम, कॉपर सल्फेट 300 ग्राम, मैंगनीज 200 ग्राम, मेगनीशियम सल्फेट 200 ग्राम, बोरिक एसिड 100 ग्राम, फेरस सल्फेट 200 ग्राम, बुझा हुआ चूना 900 ग्राम व पानी 100 लीटर रखना चाहिये।

सिंचाई : फल तोड़ने के पश्चात् एक माह तक पानी बन्द करें तथा फूल खिलने से पहले सिंचाई प्रारम्भ कर देनी चाहिये। फूल खिलने के समय सिंचाई नहीं करें तथा फल मूँग के दाने के बराबर हो जाये तो नियमित सिंचाई करें। गर्मियों में करीब 10 से 15 दिन के अन्तर पर व सर्दियों में 25-30 दिन के अन्तर पर सिंचाई करनी चाहिये। फल विकास के समय उचित मात्रा में नमी होना आवश्यक है, अन्यथा फल फटने लगते है।

देखभाल : फल देने वाले पौधों की कम से कम कटाई-छंटाई करनी चाहिये। फलों को तोड़ने के उपरान्त ऐसी शाखायें जो जमीन के अधिक सम्पर्क में आ जाती है उनको काट देते हैं। सभी रोगग्रस्त व घनी शाखाओं को काट देवें। पौधे को उचित आकार देने हेतु पौध रोपण के तीन वर्षों तक कटाई-छंटाई करते रहना चाहिए। बाग स्थापन के प्रारम्भ के तीन वर्षों में दलहनी फसलों की खेती की जा सकती है। इससे प्रारम्भ के वर्षों में भी आय प्राप्त होती रहती है।

कीट प्रबंध :

नींबू की तितली : इसकी लटें प्रारम्भ में चिड़ियों के बीट की तरह दिखाई देती है। अण्डों से निकलने के तुरन्त बाद यह पत्तियों को खाने लगती है तथा नुकसान पहुंचाती है। नियंत्रण हेतु पेड़ों की संख्या अधिक नहीं हो तो लटों को पेड़ों से चुनकर मिट्टी के तेल मिले पानी में डालकर मार देना चाहिये। मोनोक्रोटोफॉस 1.5 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी के हिसाब से छिड़काव करें।

फल चूसक पतंगा : यह कीट फलों मे सुराख करके रस चूसता है जिससे संक्रमित भाग पीला पड़ जाता है। फल की गुणवत्ता कम हो जाती है। नियंत्रण हेतु प्रकाशपाश का प्रयोग कर पतंगों को इकटठा करके मार देवें। शीरा या शक्कर 100 ग्राम के एक लीटर घोल में दस मिलीलीटर मैलाथियॉन 50 ई सी मिलाकर प्रलोभक तैयार करके मिट्टी के प्याले में 100 मिलीलीटर प्रति प्याला के हिसाब से पेड़ों पर कई स्थानों पर टांग देना चाहिये। मैलाथियॉन 50 ई सी का एक मिलीलीटर प्रति लीटर पानी का घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिये।

लीफ माइनर : लीफ माइनर की लटें बहुत छोटी होती हैं तथा यह पत्तियों में सुरंग बनाती हैं जो टेड़ी-मेड़ी होती हैं। वर्षा ऋतु में इसका प्रकोप ज्यादा होता है।

सिट्रस सिल्ला :  सिट्रस सिल्ला का आक्रमण नई पत्तियों तथा कोमल भागों में होता है। यह पत्तियों से रस चूसते हैं जिसके कारण पत्तियाँ सिकुड़ जाती हैं। इस कीट का प्रकोप वर्षा ऋतु में ज्यादा होता है। सिट्रस सिल्वा के नियन्त्रण हेतु नई पत्ती आने पर छिड़काव करना अति आवश्यक है।

रेड स्पाइडर माइट : रेड स्पाइडर माइट पत्तियों के ऊपरी सिरों से रस चूसती है। कभी-कभी बहुत ही नुकसान पहुंचाती है।

नियन्त्रण हेतु फोरमोथियोन 25 ई.सी. (सेस्थियो) एक मिलीलीटर प्रति लीटर पानी के हिसाब से घोलकर छिड़काव करें।यह रसायन मिलीबग को भी नियंत्रण करता है।

मूल ग्रन्थी (सूत्रकृमि) : इसका प्रकोप नींबू की जड़ों पर होता है। इसके प्रकोप से पत्तियाँ पीली पड़ जाती हैं तथा टहनियाँ सूखने लगती हैं। जड़ गुच्छेदार बन जाती है। पेड़ पर फल छोटे व कम लगते है तथा जल्दी गिर जाते हैं। नियंत्रण हेतु कार्बोफ्यूरॉन 3 जी 20 ग्राम प्रति पेड़ की दर से प्रयोग करें।

व्याधि प्रबंध :

नींबू का केंकर रोग : जीवाणु से होने वाले इस रोग से पत्तियों, टहनियों व फलों पर भूरे रंग के मध्य से कटे खुरदरे व कार्कनुमा धब्बे स्पष्ट दिखाई देते हैं। रोगी पत्तियाँ गिर जाती है। टहनियों एवं शाखाओं पर लम्बे घाव बनते हैं जिससे टहनियाँ टूट जाती हैं। इस रोग से कागजी नींबू को अधिक हानि होती है। नियंत्रण हेतु नये बगीचे में सदैव रोग रहित नर्सरी के पौधे ही उपयोग में लाये और रोपण से पूर्व पौधों पर बोर्डो मिश्रण 4 : 4 :50 या ताम्रयुक्त कवक नाशी (ब्लाईटॉक्स) 0.3 प्रतिशत का छिड़काव करें। रोग के प्रकोप को रोकने के लिये कटाई छंटाई के बाद विशेषकर जून से अक्टूबर तक बोर्डो मिश्रण (4 : 4 :50) या स्ट्रेप्टोसाक्लिन 250-500 मिलीग्राम प्रति लीटर के घोल का बीस दिन के अन्तर पर फरवरी और मार्च के महीने में छिड़काव करें।

गोदाति रोग (गमोसिस) : इस रोग के कारण तनों पर भूमि के पास से और टहनियों के रोग ग्रस्त भाग से गोंद जैसा पदार्थ निकल कर छाल पर बूँदों के रूप में इकट्ठा हो जाता है जिसकी वजह से छाल सूख कर फट जाती है और भीतरी भाग भूरे रंग का हो जाता है। रोग के प्रकोप से अंत में पेड़ फटने की स्थिति में पहुंच जाता है। नियंत्रण के लिये रोगग्रस्त छाल खुरचने के बाद रिडोमिल एम जेड 20 ग्राम तथा अलसी का तेल एक लीटर को अच्छी प्रकार मिलाकर या ताम्रयुक्त कवकनाशी का लेप कर दीजिये और इन्हीं कवकनाशी के 0.3 प्रतिशत अथवा रिडोमिल एम जेड 25 से 0.2 प्रतिशत घोल के चार-पाँच छिड़काव 15 दिन के अन्तर पर कीजिये। इसके अतिरिक्त बगीचे की उचित देखभाल, पानी के अच्छे निकास, धूप, हवा आदि का पूरा ध्यान इस रोग से बचाव के लिये अति आवश्यक है। 

विदर टिप या डाई बैक : इस रोग से पत्तियों पर भूरे बैंगनी धब्बे पड़ जाते हैं। टहनियाँ ऊपर से नीचे की ओर सूखती हुई भूरी हो जाती हैं और पत्तियाँ सूखकर गिर जाती हैं। नियंत्रण हेतु रोगयुक्त भाग की छंटाई के बाद ताम्रयुक्त कवकनाशी (कॉपर ऑक्सी क्लोराइड) तीन ग्राम या मैन्कोजेब दो ग्राम प्रति लीटर पानी के घोल का छिड़काव वर्षा ऋतु में 15 दिन व सर्दियों में 20 दिन के अन्तराल पर करना चाहिये। इसके अतिरिक्त वर्ष में दो बार (फरवरी और अप्रैल) में सूक्ष्म तत्वों का छिड़काव करें।

फलों का गिरना : तुड़ाई के पांच सप्ताह पहले से फल गिरने लग जाते हैं।  इनकी रोकथाम के लिये एक ग्राम 2-4 डी 100 लीटर पानी में या प्लेनोफिक्स हारमोन्स एक मिलीलीटर प्रति 4 से 5 लीटर पानी में घोल कर संतरा और मौसम्बी के वृक्षों पर छिड़कना चाहिये।

तुड़ाई एवं उपज : संतरा, माल्टा व नींबू का रंग जब हल्का पीला हो जावे तब इनकी तुड़ाई करनी चाहिये। मौसम्बी, संतरा और माल्टा की उपज प्रति पौधा 70 से 80 किलोग्राम होती है। कागजी नींबू में 40 से 50 किलो प्रति पौधा उपज प्राप्त होती है।

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