उड़द की उन्नत खेती
भारत में दालें प्रोटीन के रूप में भोजन का एक अभिन्न अंग है। टिकाऊ कृषि हेतु मृदा की उर्वरा शक्ति में वृद्धि करने एंव आहार तथा चारे के विभिन्न रूपों में उपयोग आदि दलहनी फसलों के लाभ हैं।
जलवायु : उड़द उच्च तापक्रम सहन करने वाली उष्ण जलवायु की फसल है। इसी कारण जिन क्षेत्रों में सिंचाई की सुविधा होती है वहाँ अनेक भागों में उगाया जाता है। इसकी अच्छी वृद्धि और विकास केलिए 25-35° सेंटीग्रेड तापमान आवश्यक है परन्तु यह 42° डिग्री सेंटीग्रेड तापमान तक सहन कर लेती है।अधिक जलभराव वाले स्थानों में इसे नहीं उगाना चाहिए।
मृदा : उड़द बलुई मृदा से लेकर गहरी काली मिटटी (पी एच मान 6.5-7.8) तक में सफलतापूर्वक उगायी जा सकती है। उड़द का अच्छा उत्पादन लेने के लिए खेत का समतल होना और खेत से जलनिकास की उचित व्यवस्था का होना अति आवश्यक है।
फसल चक्र : उड़द कम अवधि व कम बढ़वार वाली फसल होने के कारण इसे ऊंची बढ़वार वाली फसलों के साथ उगाया जा सकता है। इसी कारण इसका अन्तः फसल प्रणाली में अच्छा स्थान माना जाता है।कुछ फसलें जिनके साथ उड़द को उगाया जा सकता है निम्न प्रकार है।
अरहर + उड़द
बाजरा + उड़द
सूरजमुखी + उड़द
मक्का + उड़द
गन्ना + उड़द
उन्नत किस्में : उड़द की प्रमुख उन्नत किस्में पंत उर्द-31, डब्लू.बी.यू.-108, प्रताप उर्द-1 एम.एच. 2-15 हैं।
खेत की तैयारी : खेत की अच्छी तैयारी परिणामस्वरूप अच्छा अंकुरण व फसल में एक समानता के लिए बहुत जरूरी है। भारी मिटटी की तैयारी में अधिक जुताई की आवश्यकता होती है। सामान्यतः 2-3 जुताई कर के खेत में पाटा चलाकर समतल बना लिया जाता है तो खेत बुवाई के योग्य बन जाता है। ध्यान रहे कि जल निकास नाली की व्यवस्था अवश्य हो।
बुवाई : खरीफ की बुवाई का उचित समय मध्य जून से मध्य जुलाई तक माना जाता है। देर से बुवाई करने पर उपज पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। गर्मी की बुवाई का उचित समय मार्च महीने में करें। रबी की बुवाई का उचित समय मध्य अगस्त से मध्य सितम्बर तक अच्छा माना जाता है। इससे उपज भी अच्छी प्राप्त होती है। बुवाई के समय पंक्तियों का अंतर 30 से 45 सें.मी. और पौधे से पौधे का अंतर 5 से 10 सें.मी. सही रहता है। खरीफ की बुवाई के लिए 12 से 15 कि.ग्रा./हेक्टेयर बीज पर्याप्त रहताहै। गर्मी की बुवाई के लिए 20 से 25 कि.ग्रा./हेक्टेयर पर्याप्त रहता है। अधिक बीज दर रखने से पौधों की वृद्धि एवं विकास अच्छा नहीं होता है और साथ ही पैदावार पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। बुवाई से पूर्व बीज का उपचार राइजोबियम टीके से और पी एस बी के टीके से करें इससे उपज में बढ़ोतरी होती है।
पोषक तत्व प्रबंधन : उड़द की प्रारंभिक अवस्था में अच्छी वृद्धि और विकास के लिए 15 से 20 कि.ग्रा. नत्रजन/हेक्टेयर बुवाई के समय देना आवश्यक होता है। उड़द की अधिक उपज के लिए नत्रजन के साथ-साथ 40 से 50 कि.ग्रा. फास्फोरस और 30 कि.ग्रा. पोटैशियम/हेक्टेयर का प्रयोग करें।
जल प्रबंधन : सामान्यतः उड़द की अच्छी पैदावार लेने के लिए 4-5 सिंचाइयों की आवश्यकता होती है। सिंचाई क्रांतिक अवस्था पर करें तो बहुत अच्छा रहता है। पुष्पावस्था व फलियों में दाना बनते समय सिंचाई अवश्य करनी चाहिए। ध्यान रखें कि अधिक पानी खेत में खड़ा रहने से जड़ों की ग्रंथियों (नत्रजनधारी) का विकास नहीं होता है और परिणामस्वरूप उपज पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
खरपतवार प्रबंधन : उड़द की फसल को नुकसान करने वाले खरपतवार जैसे सावां, क्रेब, घास, सांठी, मोथा, कनंकआ, जंगली जूट, मुरेल, शतुर्मुर्ग-दुहदी, सैंजी, लटजीरा आदि हैं। समय पर इनकी रोकथाम करना अति आवश्यक है। इनकी रोकथाम के लिए बुवाई के 25 से 30 दिन के बाद सिंचाई के बाद से निराई व गुड़ाई करके नियंत्रित किया जा सकता है। आवश्यकता पड़ने पर खरपतवारनाशी रसायनों का उपयोग कर सकते हैं। खरपतवारनाशी पेन्डिमेथालीन 1.0 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर का 400-500 लीटर पानी में घोल बनाकर बुवाई के बाद एवं अंकुरण से पूर्व करना चाहिए।
कीट प्रबंधन : उड़द में सामान्यतः मिटटी के झींगुर और मूंग के डिम्भक कीट अंकुरण होते समय अधिक नुकसान करते हैं। एक अन्य कीट रोमिल गिडार फसल को काफी नुकसान करता है। इसकी रोकथाम कृषि रसायनों का छिड़काव कर सकते हैं।इनके अलावा तना मक्खी की रोकथाम के लिए कोर्बोफ्युरान की 25 कि.ग्रा./हेक्टेयर को बुवाई के समय मृदा में मिला देने से इसका नियंत्रण किया जा सकता है।
रोग प्रबंधन :
पीला मोजैक: इसकी रोकथाम के लिए बीज उपचार क्रुजर या गऊचो 4 ग्राम प्रति कि.ग्रा. की दर से करें। पर्णीय छिड़काव इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एस एल 5 मिलीलीटर या थायोमेथोक्सम 5 ग्राम प्रति 15 लीटर पानी में मिलाकर बुवाई के 30 दिन उपरांत करें, और रोग अवरोधी किस्मों को उगायें।
पर्ण धब्बा रोग: यह पत्तियों पर धब्बे होने से पहचानी जा सकती है। इसकी रोकथाम के लिए केप्टान अथवा जिनेब 2.5 ग्रा. दवा/लीटर पानी का घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिए।
जड़ गलन: पौधा उखाड़ने पर जड़ों में जड़ गलन का लक्षण दिखाई देता है। इसकी रोकथाम केलिए बीज को थिरम अथवा केप्टान 2.5 ग्रा./कि.ग्रा. बीज से उपचारित करें।
एन्थ्रेक्नोज: इसका प्रभाव पत्तियों एवं तने पर देखा जा सकता है। इसके अधिक प्रभाव से पैदावारमें भारी कमी आ जाती है। इसकी रोकथाम के लिए बीज उपचार करें और 2.5 ग्राम प्रति लीटर मैंकोजेब का छिड़काव 10 दिन के अंतराल पर 1-2 छिड़काव करने से इसका नियंत्रण सफलतापूर्वक किया जासकता है।
चूर्ण आसिता रोग: यह उड़द का भयंकर रोग है। सफेद पाउडर पत्तियों पर आ जाता है। बाद मे तने पर फैल जाता है जिससे पैदावार में गिरावट आ जाती है। इसकी रोकथाम के लिए घुलनशील गंधक 2 ग्राम मात्रा/लीटर पानी में घोल बनाकर खड़ी फसल में समान रूप से छिड़काव करें।
कटाई एवं गहाई : फसल की कटाई बुवाई के समय और किस्म पर निर्भर होती है। जब 75 प्रतिशत फलियां पक जाएं तो कटाई कर देनी चाहिए, अन्यथा फलियों के चटखने पर दाने खेत मे बिखर जाते हैं।जैसे-जैसे फलियां पकती जाएंउनकी तुड़ाई करते रहें और यदि ऐसी किस्म है कि फलियां एक साथ पक रही हैं तो ऐसी स्थिति में हंसिया से कटाई करें। जब फसल पूर्ण रूप से सूख जाए तब थ्रेशर से गहाई कर सकते हैं। ध्यान रहे कि दाने में 10-12 प्रतिशत तक नमी होनी चाहिए।
उपज : अच्छी प्रकार प्रबंधन की गई फसल से 10-15 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक दाने की उपज आसानी से मिल जाती है।
लोकेश कुमार जैन
सहायक आचार्य (शस्यविज्ञान)
कृषि महाविद्यालय, सुमेरपुर