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कपास की उन्नत खेती

द्वारा, दिनांक 25-06-2020 02:53 PM को 591

कपास की उन्नत खेती

परिचय : कपास रेशे वाली फसल हैं यह कपडे़ तैयार करने का नैसर्गिक रेशा हैं। कपास सिंचित एवं असिंचित दोनों प्रकार के क्षेत्रों में लगाया जाताहैं। बीटी कपास में रस चूसक कीटों के नियंत्रण के लिये 2-3छिडकाव करना पर्याप्त होता हैं जबकि पहले में देश की कुल कीटनाशक खपत का लगभग आधा भाग कपास की फसल में ही लग जाता था। बी.टी.कपास से अधिकतम उपज दिसम्बर मध्य तक ले ली जाती हैं जिससे रबी मौसम गेहूँ का उत्पादन भी लिया जा सकता हैं।

 उन्नत किस्मे : आजकल अधिकतर किसान बी.टी. कपास लगा रहे हैं जी.ई.सी. द्वारा लगभग 250 बी.टी. किस्मे अनुमोदित हैं। हमारे प्रदेश में प्रायः सभी जातियाँ लगायी जा रही हैं। बी.टी. कपास में बीजी-1 एवं बीजी-2 दो प्रकार की किस्मे आती हैं। बीजी-1 जातियों में तीन प्रकार के डेन्डू छेदक इल्लियों चितकबरी इल्ली, गुलाबी बॉल वर्म और अमेरिकन बॉल वर्म के लिए प्रतिरोधकता पायी जाती है जबकि बीजी-2 जातियाँ इनके अतिरिक्त तम्बाकू की इल्ली की रोकथाम करती हैं। आप अपने क्षेत्र के लिए अनुशंसित किस्मो का प्रयोग कर सकते है।

बुवाई का समय एवं विधि : यदि पर्याप्त सिंचाई सुविधा उपलब्ध हैं तो कपास की फसल को मई माह में ही लगाया जा सकता हैं। सिंचाई की पर्याप्त उपलब्धता न होने पर मानसून की उपयुक्त वर्षा होते ही कपास की फसल लगावें। कपास की फसल को मिट्टी अच्छी भूरभूरी तैयार कर लगाना चाहिए। सामान्यतः उन्नत जातियों का 2.5 से 3.0 किग्रा. बीज (रेशाविहीन/डिलिन्टेड) तथा संकर एवं बीटी जातियों का 1.0 किग्रा. बीज (रेशाविहीन) प्रति हेक्टेयर की बुवाई के लिए उपयुक्त होता हैं। उन्नत जातियों में चैफुली 45-60 cm X 45-60 cm पर लगायी जाती हैं (भारी भूमि में 60 cm x 60 cm, मध्य भूमि एवं हल्की भूमि में 60 cm x 45 cm) संकर एवं बीटी जातियों में कतार से कतार एवं पौधे से पौधे के बीच की दूरी क्रमशः 90 से 120 cm एवं 60 से 90 cm रखी जाती हैं।

खाद एवं उर्वरक : खाद एवं उर्वरक का उपयोग हमेशा मिटटी परिक्षण के आधार पर किया जाना चाहिए। एक सामान्य फसल की अनुशंसा इस प्रकार है। उन्नत किस्मो के लिए नाइट्रोजन 80-120 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर,  फास्फोरस 40-60 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर, पोटाश 20-30 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर तथा गंधक 25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की आवश्यकता होती है। संकर किस्मो के लिए मध्य प्रदेश में नाइट्रोजन 150 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर,  फास्फोरस 75 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर तथा पोटाश 40 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर तथा गंधक 25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की अनुशंसा की गयी है। आप अपने जिले की अनुशंसा के आधार पर उर्वरको का प्रयोग करें। नाइट्रोजन की मात्रा का 15 प्रतिशत बुआई के समय, 25 - 25 प्रतिशत बुवाई के 30 दिन, 60 दिन, 90 दिन पर बाकी रहा 10 प्रतिशत 120 दिन पर देना चाहिए। इसी प्रकार फॉस्फोरस और पोटाश की आधी मात्रा बुवाई के समय तथा शेष रही मात्रा बुवाई के 60 दिन पश्चात् देनी चाहिए। गंधक की पूरी मात्रा का प्रयोग बुवाई के समय करना चाहिए।  सूक्ष्म पोषक तत्वों की पूर्ति मिटटी परिक्षण के आधार पर करनी चाहिए। उपलब्ध होने पर अच्छी तरह से पकी हुई गोबर की खाद/कम्पोस्ट 7 से 10 टन प्रति हेक्टेयर अवश्य देना चाहिए । बुआई के समय एक हेक्टेयर के लिए लगने वाले बीज को 500 ग्राम एजोस्पाइरिलम एवं 500 ग्राम पी.एस.बी. से भी उपचारित कर सकते है जिससे 20 किग्रा नाइट्रोजन और 10 किलोग्राम फॉस्फोरस की बचत होगी।

बी.टीकपास में रिफ्यूजिया का महत्व : भारत सरकार की अनुवांशिक अभियांत्रिकी अनुमोदन समिति (जी. ई.ए.सी.) की अनुशंसा के अनुसार कुल बीटी क्षेत्र का 20 प्रतिशत अथवा 5 कतारें (जो भी अधिक हो) मुख्य फसल के चारों उसी किस्म का नान बीटी वाला बीज लगाना (रिफ्यूजिया) लगाना अत्यंत आवश्यक हैं।  प्रत्येक बीटी किस्म के साथ उसका नान बीटी (120 ग्राम बीज) या अरहर का बीज उसी पैकेट के साथ आता हैं। बीटी किस्म के पौधों में बेसिलस थुरेनजेसिस नामक जीवाणु का जीन समाहित रहता जो कि एक विषैला प्रोटीन उत्पन्न करता हैं इस कारण इनमें बॉल वर्म  से बचाव की क्षमता विकसित होती हैं। रिफ्यूजिया कतारे लगाने पर बॉल वर्म  कीटों का प्रकोप उन तक ही सीमित रहता हैं और यहाँ उनका नियंत्रण आसान होता हैं। यदि रिफ्यूजिया नहीं लगाते तो बॉल वर्म कीटों में प्रतिरोधकता विकसित हो सकती हैं ऐसी स्थिति में बीटी किस्मों की सार्थकता नहीं रह जाएगी ।

निंदाई-गुड़ाई एवं खरपतवार नियंत्रण : पहली निंदाई-गुड़ाई अंकुरण के 15 से 20 दिन के अंदर कर कुल्पा या डोरा चलाकर करना चाहिए। खरपतवारनाशकों का प्रयोग भी आवश्यकता अनुसार किया जा सकता है जैसे पेन्डामेथेलिन 1 किग्रा. सक्रिय तत्व को बुवाई पूर्व उपयोग किया जा सकता है।

सिचांई : एकान्तर (कतार छोड़) पद्धति अपना कर सिंचाई जल की बचत करे। बाद वाली सिंचाईयाँ हल्की करें,अधिक सिंचाई से पौधो के आसपास आर्द्रता बढ़ती है व मौसम गरम रहा तो कीट एवं रोगों के प्रभाव की संभावना बढ़तीहै। क्रांतिक अवस्थाओं पर सिंचाई अवश्य करनी चाहिए अगर नमी का आभाव है।

कपास में सिंचाई की क्रांतिक अवस्थाएँ निम्न प्रकार है।

•      सिम्पोडिया, शाखाएँ निकलने की अवस्था एवं 45-50 दिन फूल पुड़ी बनने की अवस्था।

•      फूल एवं फल बनने की अवस्था 75-85 दिन

•      अधिकतम घेटों की अवस्था 95-105 दिन

•      घेरे वृद्धि एवं खुलने की अवस्था 115-125दिन

ड्रिप विधि से सिंचाई कर जल की बचत करें : ड्रिप सिंचाई एक महत्वपूर्ण सिंचाई साधन है यह बिजली, मेहनत और लगभग 70 प्रतिशत सिंचाई जल की बचत करता है। ड्रिप सिंचाई को तीन दिन में एक बार चलाया जाना चाहिए । ड्रिप सिंचाई की सहायता से पौधों को घुलनशील खाद एवं कीटनाशकों की आपूर्ति की जा सकती है। प्रत्येक पौधे को उचित ढंग से पर्याप्त जल व उर्वरक उपलब्ध होने के कारण उपज में वृद्धि होती है।

कपास में कीट एवं रोग नियंत्रण : कपास में लगने वाले मुख्य कीट और रोग निम्न प्रकार है।

हरा मच्छर : पंचभुजाकार हरे पीले रंग के कीट जिनके अगले जोड़ी पंखे पर एक काला धब्बा पाया जाता है। शिशु - व्यस्क पत्तियों के निचले भाग से रस चूसते है। पत्तिया क्रमशः पीली पड़कर सूखने लगती है।

सफेद मक्खी : हल्के पीले रंग का छोटा कीट जिसका शरीर सफेद मोमीय पाउडर से ढंका रहता है। पत्तियो से रस चूसती है एवं मीठा चिपचिपा पदार्थ पौधे की सतह पर छोड़ते है जिससे पत्तियां तेलीय नजर आती है। से वायरस का संचरण भी करती है।

माहू : अत्यंत छोटे मटमैले हरे रंग का कोमल कीट है। यह पत्तियो की निचली सतह से खुरचकर एवं घेटों पर समूह में रस चूसकर मीठा चिपचिपा पदार्थ उत्सर्जित करते है।

थ्रिप्स : अत्यंत छोटे काले रंग के कीट जो पत्तियो की निचली सतह से खुरचकर और रस चूसकर पौधों को कमजोर करते है।

मिलीब : मादा पंख विहीन होती है जिनका शरीर सफेद पाउडर से ढंका। शाखाओं पर चिपकी रहती है तने, शाखाओं,पर्णवृतों,फूल पूड़ी एवं घेटों पर समूह में रस चूसकर मीठा,चिपचिपा पदार्थ उत्सर्जित करती है।

नियंत्रण के उपाय :

1.पूरे खेत में प्रति एकड़ 10 पीले प्रपंच लगाये।

2.नीम तेल 5 मिली.+ सेन्डोविट 1 मिली.प्रति लीटर पानी की दर से छिड़काव करें।

3.रासायनिक कीटनाशी थायोमिथाक्ज़्म 25 डब्लुजी - 100 ग्राम सक्रिय तत्व प्रति हेक्टेयर या  एसिटामेप्रिड 20 एस.पी. - 20 ग्राम सक्रिय तत्व प्रति हेक्टेयर या इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एस.एल - 200 मिली.सक्रिय तत्व प्रति हेक्टेयर का उपयोग करें। एक बार उपयोग में लाई गई दवा का पुनः छिड़काव नहीं करें।

कपास का कोणीय धब्बा एवं जीवाणु झुलसा रोग : रोग के लक्षण पौधे के वायवीय भागों पर छोटे गोल जलासिक्त जो बाद में भूरे रंग के हो जाते हैं दिखाई देते है। रोग के लक्षण डोडो पर भी दिखाई देते हैं। डोडो एवं सहपत्रों पर भी भूरे काले चित्ते दिखाई देते हैं। ये डोडे समय से पहले खुल जाते है। रोग ग्रस्त डोडो का रेशा खराब हो जाता है इसका बीज भी सिकुड़ जाता है। कोणीय धब्बा रोग के नियंत्रण के लिए बीज को बोने से पहले स्टेप्टोसाइक्लिन (1ग्राम दवा प्रति लीटर पानी में) बीजोपचार करे । खेत में कोणीय धब्बारोग के लक्षण दिखाई देते ही स्टेप्टोसाइक्लिन का 100 पी.पी.एम (1ग्राम दवा प्रति 10 लीटर पानी) घोल का छिड़काव 15 दिन के अंतर पर दो बार करें।

मायरोथीसियम पत्ती धब्बा रोग : इस रोग में पत्तियों पर हल्के भूरे से गहरे भूरे रंग के धब्बे बन जाते हैं। कुछ समय बाद ये धब्बे आपस में मिलकर अनियमित रूप से पत्तियों का अधिकांश भाग ढँक लेतेहैं। धब्बों के बीच का भाग टूटकर नीचे गिर जाता है। इस रोग से फसल की उपज में लगभग 20-25 प्रतिशत तक कमी आंकी गई है ।

अल्टरनेरिया पत्ती धब्बा रोग : इस रोग में पत्तियों पर हल्के भूरे रंग के संकेंद्रित धब्बे बनते हैं व अन्त में पत्तियाँ सूखकर झड़ने लगती है। वातावरण में नमी की अधिकता होने पर ही यह रोग दिखाई देता है एवं उग्ररूप से फैलता है।

पौध अंगमारी रोग : पौध अंगमारी रोग में बीजांकुरों के बीज पत्रों पर लाल भूरे रंग के सिकुड़े हुए धब्बे दिखाई देते हैं एवं स्तम्भ मूल संधि क्षेत्र लाल भूरे रंग का हो जाता है। रोगग्रस्त पौधे की मूसला जड़ों को छोड़कर मूल तन्तु सड़ जाते हैं। खेत में उचित नमी रहते हुए भी पौधों का मुरझा कर सूखना इस बिमारी का मुख्य लक्षण है।

नियंत्रण के उपाय : फफूंद जनित रोगो से बचाव के लिए बोने से पूर्व बीजों को बावेस्टीन कवक नाशी दवा की 2 ग्राम मात्रा प्रति किलो बीज की दर से बीजोपचार करे।  कवक जनित रोगों की रोकथाम हेतु मैंकोजेब या काँपर ऑक्सी क्लोराइड की 2.5 ग्राम दवा को प्रति लीटर पानी के साथ घोल बनाकर फसल पर  2 से 3 बार 10 दिन के अंतराल पर छिड़काव करें। जल निकास का उचित प्रबंध करें।

न्यू विल्ट : पौधे में लक्षण उकठा (विल्ट) रोग की तरह दिखाई देते हैं और पौधे के सूखने की गति तेज होती है। अचानक पूरा पौधा मुरझाकर सूख जाता है । एक ही स्थान पर दो पौधों में से एक पौधों का सूखना एवं दूसरा स्वस्थ होना इस रोग का मुख्य लक्षण है। इस रोग का प्रमुख कारण वातावरणीय तापमान में अचानक परिवर्तन, मृदा में नमी का असन्तुलन तथा पोशक तत्वों की असंतुलित मात्रा के कारण होता है। नया उकठा रोग के नियंत्रण के लिए यूरिया का 1.5 प्रतिशत घोल (100 लीटर पानी में 1500 ग्राम यूरिया) 1.5 से 2 लीटर घोल प्रति पौधा के हिसाब से पौधों की जड़ के पास रोग दिखने पर एवं 15 दिन के बाद डालें।

उपज : देशी / उन्नत जातियों की चुनाई प्रायः नवम्बर से जनवरी-फरवरी तक, संकर जातियों की अक्टूबर-नवम्बर से दिसम्बर-जनवरी तक तथा बी.टी. किस्मों की चुनाई अक्टूबर से दिसम्बर तक की जाती है। कहीं-कहीं बी.टी. किस्मों की चुनाई जनवरी-फरवरी तक भी होती है। देशी/उन्नत किस्मों से 10-15 क्विंटल प्रति हेक्टेयर, संकर किस्मों से 13-18 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तथी बी.टी. किस्मों से 15-20 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक औसत उपज प्राप्त होती है।

कपास की चुनाई के समय रखन वाली सावधानियाँ : कपास की चुनाई प्रायः ओस सूखने के बाद ही करनी चाहिए। अविकसित, अधखिले या गीले डोडो की चुनाई नहीं करनी चाहिए । चुनाई करते समय कपास के साथ सूखी पत्तियाँ, डण्ठल, मिट्टी इत्यादि नहीं आना चाहिए। चुनाई पश्चात् कपास को धूप में सुखा लेना चाहिए क्योंकि अधिक नमी से कपास में रूई तथा बीज दोनों की गुणवत्ता में कमी आती है । कपास को सूखाकर ही भंडारित करें क्योंकि नमी होने पर कपास पीला पड़ जायेगा व फफूंद भी लग सकती हैं।

महत्वपूर्ण तथ्य :

1. उन्नत बीज और सही किस्म का प्रयोग करें तथा बुवाई की दुरी अनुशंसा के आधार पर रखें।

2. उर्वरकों को बुआई के समय देने पर व जड़ क्षेत्र में होने पर ही सबसे अधिक उपयोग-दक्षता प्राप्त होती है। अतः आधार खाद को बुआई के समय ही व बुआई की गहराई पर प्रदाय करना चाहिए।

3. मिटटी में ज़िंक एवं सल्फर की कमी पाई गई है। अतः जिंक सल्फेट 25 किग्रा./हेक्टेयर डालना चाहिए। या मृदा परीक्षण के परिणामों के आधार पर सुक्ष्म तत्वों का उपयोग करना चाहिए।

4. सिंचाई हेतु टपक सिंचाई पद्धति अपनाकर कपास में अच्छा परिणाम मिलता है।

5. कपास की जैविक खेती करने से कपास में रसायनो का प्रभाव नहीं रहता है एक्सपोर्ट क्वालिटी का होने के कारण बाजार भाव अच्छा मिलेगा।


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