सोयाबीन खरीफ की एक प्रमुख तिलहन फसल है। देश में सोयाबीन उत्पादन के क्षेत्र में मध्य प्रदेश अग्रणी है जिसकी हिस्सेदारी 55 से 60 प्रतिशत के मध्य है। उत्पादकता में कमी मुख्य बिंदु है। यदि सोयाबीन उत्पादकता कमी के कारणों को देखे तो अनेको कारन नजर आते है जिससे लागत तो बढ़ती जा रही है और कृषको को ज्यादा लाभ प्राप्त नहीं हो रहा है । उन्नत विधि से खेती करके सोयाबीन को भी लाभकारी बनाया जा सकता है।
खेत की तैयारी : सोयाबीन बुवाई के लिए खेत की तैयारी मिटटी परिक्षण से शुरू होती है। रबी फसल की कतई के पश्चात् मिट्टी परीक्षण अवश्य करवाना चाहिए। संतुलित उर्वरक प्रबंधन एवं मृदा स्वास्थ्य हेतु के लिए मिटटी की जाँच करवाना आवश्यक है। इसके पश्चात् खाली खेतो की ग्रीष्मकालीन गहरी जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से माह मार्च से 15 मई तक 9 से 12 इंच गहराई तक करें । इससे मृदा के भौतिक गुणों में सुधार होगा, जैसे मृदा में वायु संचार, पानी सोखने एवं जल धारण शक्ति, मृदा भुरभुरापन, भूमि संरचना इत्यादि । साथ ही यह खरपतवार नियंत्रण और कीड़े मकोड़े तथा बिमारियों के नियंत्रण में भी सहायक है ।
उन्नत किस्मे : सोयाबीन की जल्दी और माध्यम पकने वाली अनेको नयी किस्मे प्रचलन में है जो निम्न प्रकार है। जे. एस-335, जे.एस. 93-05, जे. एस. 95-60, जे.एस. 97-52, जे.एस. 20-29, जे.एस. 20-34, एन.आर.सी-7, एन.आर.सी-12, एन.आर.सी- 86, आर वी एस 2001 - 4 आदि।
बीजोपचार : बीज को थायरम + कार्बेन्डाजिम (2:1) के 3 ग्राम मिश्रण अथवा थायरम + कार्बोक्सीन 2.5 ग्राम अथवा ट्राईकोडर्मा विरिडी 5 ग्राम और थायोमिथाक्सेम 78 WS 3 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करें । जैव उर्वरक से बीज उपचार करना लाभकारी रहता है बीज को राइजोबियम कल्चर (सोयाबीन हेतु ब्रेडी राइज़ोबियम जैपोनिकम) 5 ग्राम एवं पी.एस.बी. 5 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से बोने से कुछ घंटे पूर्व टीकाकरण करें । पी.एस.बी. 2.50 किलोग्राम प्रति एकड़ की दर से खेत में मिलाने से फॉस्फोरस को घुलनशील अवस्था में परिवर्तित कर पौधों को उपलब्ध कराने में सहायक होता है ।
बुआई का समय एवं विधि : जून के अंतिम सप्ताह से जुलाई के प्रथम सप्ताह के मध्य 4-5 इंच वर्षा होने पर बुवाई करें । बुवाई कतारों में करनी चाहिए। इसके लिए कतार की दूरी कम फैलने वाली प्रजातियों जैसे जे.एस. 93-05, जे.एस. 95-60 इत्यादि के लिये बुवाई के समय कतार से कतार की दूरी 40 से.मी. रखे । ज्यादा फैलनेवाली किस्में जैसे जे.एस. 335, एन.आर.सी. 7, जे.एस. 97-52 के लिए 45 से.मी. की दूरी रखें । गहरी काली भूमि तथा अधिक वर्षा क्षेत्रों में मेड़नाली पद्धति या रेज्ड बेड प्लांटर या ब्रॉड बेड फरो पद्धति से बुआई करें । बीज के साथ मिलाकर किसी भी प्रकार के रासायनिक उर्वरको का प्रयोग न करें ।
बीज की मात्रा : बुवाई हेतु दानों के आकार के अनुसार बीज की मात्रा का निर्धारण करें । पौध संख्या 4-4.5 लाख प्रति हेक्टेयर होनी चाहिये। छोटे दाने वाली प्रजातियों के लिये बीज की मात्रा 60-70 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से उपयोग करें । बड़े दाने वाली प्रजातियों के लिये बीज की मात्रा 80-90 कि.ग्रा. प्रति हेक्टयर की दर से निर्धारित करें ।
उर्वरक प्रबंधन : उवर्रक प्रबंधन के अंतर्गत रसायनिक उर्वरकों का उपयोग मिट्टी परीक्षण के आधार पर ही किया जाना सर्वथा उचित है । रसायनिक उर्वरकों के साथ नाडेप खाद, गोबर खाद, कार्बनिक संसाधनों का अधिकतम (10 टन/हे.) या वर्मी कम्पोस्ट 5 टन/हे. उपयोग करें । रसायनिक उर्वरक प्रबंधन के लिए संतुलित मात्रा 20 किलोग्राम नाइट्रोजन, 60 - 80 किलोग्राम फॉस्फोरस, 40 किलोग्राम पोटाश और 20 किलोग्राम गंधक का प्रयोग प्रति हेक्टेयर करना चाहिए।
नाइट्रोजन को छोड़कर उर्वरको की पूरी मात्रा खेत में अंतिम जुताई से पूर्व डालकर भली भाँति मिट्टी में मिला देनी चाहिए। नाइट्रोजन की पूर्ति हेतु आवश्यकता अनुरूप 50 किलोग्राम यूरिया का उपयोग अंकुरण पश्चात 7 दिन से डोरे के साथ डाले । जस्ता एवं गंधक की पूर्ति के लिए अनुशंसित खाद एवं उर्वरक की मात्रा के साथ जिंक सल्फेट 25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर मिट्टी परीक्षण के अनुसार डालें । गंधक युक्त उर्वरक (सिंगल सुपर फास्फेट) का उपयोग अधिक लाभकारी होगा । सुपर फास्फेट उपयोग न कर पाने की दशा में जिप्सम का उपयोग 2.50 क्वि. प्रति हैक्टर की दर से करना लाभकारी है । इसके साथ ही अन्य गंधक युक्त उर्वरकों का उपयोग किया जा सकता है ।
जल संरक्षण : सोयाबीन वर्षापोषित ही लगायी जाती है इसलिए साधारण सीड ड्रील से बुवाई के समय 5-6 कतारों के बाद फरो ओपनर के माध्यम से एक कूंड बनाए । खाली कूंड को डोरा चलाते वक्त गहरा कर दे । इससे अधिक वर्षा की स्थिति में जल निकासी एवं अल्प वर्षा की स्थिति में जल संरक्षण होगा । सीड ड्रिल के साथ पावडी का उपयोग करें, जिससे जल संरक्षण एवं उचित पौध संख्या प्राप्त की जा सकती है ।
अंर्तवर्ती खेती : अंर्तवर्ती फसलें जैसे सोयाबीन + अरहर (4:2), सोयाबीन + मक्का (4:2), सोयाबीन + ज्वार (4:2), सोयाबीन + कपास (4:1) को जलवायु के क्षेत्र के हिसाब से अपनायें ताकि रिस्क कम होकर आय में वृद्धि हो।
फसल चक्र : निरंतर सोयाबीन - चना के स्थान पर सोयाबीन - गेहूं, सोयाबीन - सरसों फसल चक्र को अपनाना चाहिए।
खरपतवार प्रबंधन : खरपतवारों को सोयाबीन फसल में निम्न विधियों द्वारा नियंत्रित किया जा सकता है :
यांत्रिक विधि : फसल को 30-45 दिन की अवस्था तक नींदा रहित रखें । इस हेतु फसल उगने के पश्चात डोरे/कुलपे चलावे ।
रसायनिक विधि : इस विधि से प्रभावी नींदा नियंत्रण हेतु अवश्यकता एवं समय के अनुकूल खरपतवार नाशी दवाओं का चयन कर उपयोग करें। सोयाबीन में बुवाई के बाद और उगने से पहले छिड़काव के लिए मेटालोक्लोर 2.00 ली. या क्लोमाझोन 2.00 ली या पेण्डीमिथालीन 3.25 ली. पर्याप्त पानी में मिलाकर छिड़काव करें। 15-20 दिन की खड़ी फसल में इमेजाथायपर 1.00 ली. या क्विजालोफाप इथाइल 1.00 ली. या फेनाक्सीफाप-पी- इथाइल 0.75 ली. का प्रयोग करना चाहिए। 10-15 दिन की फसल में क्लोरीम्यूरानइथाइल 36 ग्राम प्रति हेक्टेयर का प्रयोग आवश्यक जल में मिलाकर करना चाहिए। देरी से छिड़काव करने पर अगली फसल में अंकुरण में समस्या आती है।
कीट एवं बीमारिया : सोयाबीन के मुख्य कीट और बिमानियाँ निम्न प्रकार है।
ब्लू बीटल : नियंत्रण के लिए क्लोरपायरीफास या क्यूनालफाॅस 1.5 लीटर प्रति हेक्टेयर का छिड़काव करें।
गर्डल बीटल : नियंत्रण के लिए इथोफेनप्राक्स 1 लीटर प्रति हेक्टेयर या थायोक्लोप्रीड 0.75 लीटर प्रति हेक्टेयर का छिड़काव करें।
तम्बाकू की इल्ली एवं रोयंदार इल्ली : नियंत्रण के लिए क्लोरपायरीफास 20 इ.सी. 1.5 लीटर प्रति हेक्टेयर या इंडोक्साकार्ब 14.5 एस.पी. 0.5 लीटर प्रति हेक्टेयर या रेनेक्सीपायर 20 एस.सी. 0.10 लीटर प्रति हेक्टेयर का छिड़काव करें। जैविक नियंत्रण हेतु बेसिलस थ्रूरिंजिएंसिस अथवा ब्यूवेरिया बेसियाना 1 लीटर या किलो प्रति हेक्टेयर का प्रयोग करें। तम्बाकू की इल्ली हेतु एस.ए.एन.पी.वी 250 एल.ई. प्रति हेक्टेयर का छिड़काव करें।
सेमी लूपर इल्ली : नियंत्रण के लिए क्लोरपायरीफास 20 इ.सी. 1.5 लीटर प्रति हेक्टेयर या इंडोक्साकार्ब 14.5 एस.पी. 0.5 लीटर प्रति हेक्टेयर या रेनेक्सीपायर 20 एस.सी. 0.10 लीटर प्रति हेक्टेयर का छिड़काव करें। जैविक नियंत्रण हेतु बेसिलस थ्रूरिंजिएंसिस अथवा ब्यूवेरिया बेसियाना 1 लीटर या किलो प्रति हेक्टेयर का प्रयोग करें।
चने की इल्ली : चने की इल्ली हेतु एच.ए.एन.पी.वी 250 एल.ई. प्रति हेक्टेयर का छिड़काव करें। या बेसिलस थ्रूरिंजिएंसिस अथवा ब्यूवेरिया बेसियाना 1 लीटर या किलो प्रति हेक्टेयर का प्रयोग करें। रसायनिक निंयत्रण हेतु रेनेक्सीपायर 0.10 लीटर प्रति हेक्टेयर या प्रोपेनोफाॅस 1.25 लीटर प्रति हेक्टेयर या इन्डोक्साकार्ब 0.50 लीटर प्रति हेक्टेयर या लेम्डासायहेलोथ्रीन 0.3 लीटर प्रति हेक्टेयर या स्पीनोसेड 0.125 लीटर प्रति हेक्टेयर का उपयोग करें ।
पत्ती धब्बा एवं ब्लाइट: नियंत्रण हेतु कार्बेन्डाजिम या थायोफिनेट मिथाईल के घोल का 35-40 दिन में छिड़काव करें ।
बेक्टेरियरल पश्चूल : नियंत्रण हेतु रोग रोधी किस्में जैसे एन.आर.सी.-37 का प्रयोग करें । रोग का लक्षण दिखाई देने पर कासुगामाइसिन का 0.2 % (2 ग्राम/ली.) घोल का छिड़काव करें ।
गेरूआ : यह एक फफूंदजनित रोग है जो प्रायः फूल की अवस्था में देखा जाता है जिसके अन्तर्गत छोटे-छोटे सूई के नोक के आकार के मटमेले भूरे व लाल भूरे सतह से उभरे हुए धब्बे के रूप में पत्तीयों की निचली सताह पर समूह के रूप में पाये जाते है । धब्बों के चारों ओर पीला रंग होता है । पत्तीयों को थपथपाने से भूरे रंग का पाउडर निकलता है । रोग रोधी किस्में जैसे जे.एस. 20-29, एन.आर. सी 86 का प्रयोग करें । रसायनिक नियंत्रण के अन्तर्गत हेक्साकोनाजोल या प्रोपीकोनाजोल 800 मि.ली. /हे. का छिड़काव करें ।
चारकोल रोट : यह एक फफूंदजनित रोग है । इस बीमारी से पौधे की जड़े सड़ कर सूख जाती है । पौधे के तने का जमीन से ऊपरी हिस्सा लाल भूरे रंग का हो जाता है। पत्तीयां पीली पड़ कर पौधे मुरझा जाते हैं । रोग ग्रसित तने व जड़ के हिस्सों के बाहरी आवरण में असंख्य छोटे-छोटे काले रंग के स्केलेरोशिया दिखाई देते हैं । रोग सहनशील किस्में जैसे जे.एस. 20-34 एवं जे.एस 20-29,, जे एस 97-52, एन.आर.सी. 86 का उपयोग करें । रसायनिक नियंत्रण के अन्तर्गत थायरम + कार्बोक्सीन 2:1 में 3 ग्राम या ट्रायकोडर्मा विर्डी 5 ग्राम /किलो बीज के मान से उपचारित करें ।
ऐन्थ्रेक्नोज व फली झुलसा : यह एक बीज एवं मृदा जनित रोग है । सोयाबीन में फूल आने की अवस्था में तने, पर्णवृन्त व फली पर लाल से गहरे भूरे रंग के अनियमित आकार के धब्बे दिखाई देते है । बाद में यह धब्बे फफूंद की काली सरंचनाओं (एसरवुलाई) व छोटे कांटे जैसी संरचनाओं से भर जाते है । पत्तीयों पर शिराओं का पीला-भूरा होना, मुड़ना एवं झड़ना इस बीमारी के लक्षण है । रोग सहनशील किस्में जैसे एनआरसी 7 व 12 का उपयोग करें । बीज को थायरम + कार्बोक्सीन या केप्टान 3 ग्राम /कि.ग्रा. बीज के मान से उपचारित कर बुवाई करें । रोग का लक्षण दिखाई देने पर मेन्कोजेब 2 ग्रा./ली. का छिड़काव करें ।
एकीकृत कीट एवं रोग नियंत्रण : कीटो और बीमारियों के प्रभावी नियंत्रण के लिए एकीकृत कीट एवं रोग प्रबंधन वह पद्धति है जिसमें सभी कीटो एवं बीमारियों का प्रबंधन सम्मिलित विधियों से किया जाता है। इसके लिए निम्न उपाय करें।
1. गर्मी में गहरी जुताई
2. संतुलित उवर्रक प्रबंधन
3. सही किस्मों का चयन एवं बीज उपचार
4. बुआई का समय
5. बीज दर व पौध संख्या
6. जल प्रबंधन
7. रोग ग्रस्त फसल अवशेषों को नष्ट करना
8. खरपतवार नियंत्रण
9. फसल चक्र व अंतरवर्तीय फसल
10. प्रतिरोधी किस्मों का प्रयोग
11. खेत में ‘T’ आकार की खूटी 20-25 प्रति हेक्टेयर लगाएं
12. फेरोमोन ट्रेप 10-12/ प्रति हेक्टेयर का प्रयोग करें
13. लाईट ट्रेप का उपयोग कीटों के प्रकोप की जानकारी के लिए करें
14. जैविक कीटनाशियों का प्रयोग
15. NPV का उपयोग
कटाई व गहाई : फसल की कटाई उपयुक्त समय पर कर लेने से चटकने पर दाने बिखरने से होने वाली हानि में समुचित कमी लाई जा सकती है। फलियों के पकने की उचित अवस्था पर (फलियों का रंग बदलने पर या हरापन पूर्णतया समाप्त होने पर) कटाई करनी चाहिए । कटाई के समय बीजों में उपयुक्त नमी की मात्रा 14-16 प्रतिशत है । फसल को 2-3 दिन तक धूप में सुखाकर थ्रेशर की धीमी गति (300-400 आर.पी.एम.) पर गहाई करनी चाहिए । गहाई के बाद बीज को 3 से 4 दिन तक धूप में अच्छा सुखा कर भण्डारण करना चाहिए ।
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