मोठ मरू अंचल की महत्वपूर्ण दलहन फसल है। बारानी क्षेत्रों के कृषकों द्वारा अधिकांश क्षेत्र में कम पैदावार देने वाली परम्परागत देशी किस्मों के प्रयोग से इसका उत्पादन कम प्राप्त होता है । बारानी क्षेत्रो में वर्षाकाल में केवल एक ही प्रकार की फसल लेने का प्रचलन है जो मौसम की प्रतिकूलता में उत्पादन नहीं दे पाती है। कम लागत मे उथली व कम उपजाऊ भूमियों से मोठ का वैज्ञानिक एवं व्यवसायिक दृष्टिकोण अपनाते हुए सफलतापूर्वक उत्पादन प्राप्त कर किसान अधिक लाभ अर्जित कर सकते है। मोठ शुष्क एंव अर्द्धशुष्क क्षेत्रो के लिए उपयुक्त व निश्चित उत्पादन देने वाली फसल है तथा विपरीत कृषि जलवायु में भी अच्छा उत्पादन देती है। इसमें सुखा सहन करने की विलक्षण क्षमता है। अतः किसान परिस्थितियो के अनूकूल उनकी उन्नत किस्मों को अपनाकर तकनीकी ज्ञान के साथ खेती कर लाभ उठा सकते है। मोठ बारानी व कम उपजाऊ भूमियों में कम वर्षा की स्थिति मे सफलता पूर्वक उत्पादन देने वाली बहुउपयोगी दलहनी फसल है। यह फसल वायुमण्डल से स्वतन्त्र नत्रजन प्राप्त कर राइजोबियम जीवाणुओं के माध्यम से अपनी जडों में नत्रजन स्थिरीकरण कर खेतों की उर्वरा शक्ति बढ़ाती है। इसमें 23 प्रतिशत सुपाच्य प्रोटीन , 50 प्रतिशत कार्बोहाइड्रेड़ तथा विटामिन विद्यमान होते है। फलीदार फसल होने के कारण इसके चारे का उपयोग पशुधन के लिये पोष्टिक चारे के रूप मे किया जाता है। इसका हरी खाद के रूप मे भी उपयोग कर सकते है।
खेत की तैयारी : ग्रीष्मकालीन एक गहरी जुताई के बाद वर्षा काल में एक दो बार आवश्कतानुसार जुताई कर खेत को खरपतवारो से विहीन कर समतल कर देना चाहिये ताकि उचित जल निकास हो सकें। जहां उथली या पथरीली भूमि हो वहां ज्यादा गहराई से जुताई नहीं करें अन्यथा बारीक मिट्टी की उपजाऊ परत नीचे चले जाने पर विपरीत असर होता हे।
उन्नत किस्मे : मोठ की अनेक किस्मे वैज्ञानिको द्वारा समय समय पर निकाली गयी है जिनका विवरण निम्न प्रकार है।
आर.एम.ओ. 40 (1994) : पीतशिरा मोजेक विषाणु रोधक इस किस्म की पत्तियां चौड़ी, कम कटावदार व गहरे हरे रंग की होती है तथा पकने तक हरी रहती है। पौधा सीधा 30-40 सेन्टीमीटर ऊंचा कम फैलाव वाला होता है। फलियां व दाने भूरे रंग के तथा पकाव अवधि 62-65 दिन है। इसमें सूखा सहने की क्षमता होती है। यह 6-9 क्विण्टल दाने एवं 13-14 क्विण्टल प्रति हेक्टेयर सूखे चारा की उपज देती है ।
आर.एम.ओ. 225 (1999) : 65 से 70 दिन में पकने वाली इस किस्म की औसत उपज 5 से 8 क्विंटल प्रति हेैक्टेयर है।
सी.जेड.एम. 2 (2003) : 65 से 70 दिन में पकने वाली किस्में जिसमें 100 से 150 फलियाँ प्रति पौधा लगती है। इस किस्म की औसत उपज 8 से 10 क्विंटल प्रति हेैक्टेयर है।
आर.एम.ओ. 435 (2002) : यह एक जल्दी पकने वाली अर्द्ध विस्तारी किस्म है जो शुष्क व अर्द्धशुष्क क्षेत्रों के लिये उपयुक्त है। इसके पौधों में 6-8 मुख्य शाखायें तथा पत्तियां चैड़ी कम कटावदार व पकने तक हरी रहती है। इससे औसत 6-8 क्विण्टल बीज तथा 14-17 क्विण्टल चारा प्रति हैक्टेयर मिलता है।
आर.एम.ओ. 257 (2007) : यह भी जल्दी पकने वाली (65 दिन) किस्म है जो आर.एम.ओ. 40 की तुलना में पीतशिरा विषाणु तथा थ्रीप्स के प्रति अधिक सहनशील है। इससे औसतन 5.5 क्विण्टल बीज एवं 13 से 14 क्विण्टल चारा प्रति हैक्टेयर मिलता है।
भूमि उपचार : भुमिगत कीट यथा कातरा, सफेद लट एवं दीमक की रोकथाम तथा मोठ में जड गलत रोग नियन्त्रण के लिए फसल संरक्षण में वर्णित अनुसार उपचार करना आवश्यक है। दीमक का प्रकोप कम करने के लिए खेत की पूरी सफाई जैसे सूखे डण्टल आदि इकठ्ठे कर हटा देना, कच्चा खाद का प्रयोग न करना आदि काफी सहायक होते है।
बीज उपचार : बीज को 3 ग्राम कैप्टान प्रति किलो बीज की दर से उपचारित करें । मोठ में रस चूसक कीटो की रोकथाम के लिये 5 मिली इमिडाक्लोप्रिड 600 एफ.एस. प्रति किलो बीज से उपचारित करें । फसलों के बीजों को राइजोबिया शाकाणु संवर्ध तथा फास्फोरस विलेयक जीवाणु जो लिग्नाईट आधारीत माध्यम में मिश्रित कर बीजोपचार हेतु उपलब्ध कराया जाता है के प्रयोग से अधिक उत्पादन प्राप्त होता है। फंफुदनाशी, कीटनाशी और राईजोबियम कल्चर से बीज उपचार उपर्युक्त क्रम में ही करें।
उर्वरक : मोठ हेतु 20 किलो फास्फोरस व 10 किलो नत्रजन बुवाई के समय ऊर कर देवें जहां पोटाश की कमी हो वहां भूमि परीक्षण के आधार पर पोटाश युक्त उर्वरक डालें । बारानी क्षेत्रों में फाॅरफोरस उर्वरक की आधी मात्रा ही देवे ।
बीज एवं बुवाई : उन्नत किस्म का निरोग बीज बोयें । बुवाई मानसून की वर्षा के साथ - साथ ही या यदि वर्षा देरी से हो तो 30 जुलाई तक भी की जा सकती है । मोठ का 10 किलो बीज प्रति हैक्टेयर के हिसाब से विशुद्ध फसल के लिये चाहिये । कतारों से बुवाई करना अच्छा रहता है । कतारों के बीच 45 सेन्टीमीटर और पौधों के बीच 15-20 सेन्टीमीटर की दूरी रखिये । आर एम ओ 40 किस्म में बीज की मात्रा 15 किलो प्रति हैक्टेयर व कतारों व पौधो के बीच की दूरी 30 x 10-15 सेन्टीमीटर रखें ।
निराई-गुडाई : आवश्यकतानुसार खरपतवार निकालते रहे । 30 दिन की फसल होने तक निराई गुडाई कर देनी चाहिये ।
फसल संरक्षण : मोठ की फसल में लगने वाले कीड़े और बिमारियों का विवरण निचे दिया गया है।
कातरा : खरीफ में खास तौर से कातरे का प्रकोप होता हैं। कीट की लट वाली अवस्था ही फसलों को नुकसान करती हैं। मानसून की वर्षा होते ही कातरे के पतंगों का जमीन से निकालना शुरू हो जाता हैं। यदि इन पतंगो को नष्ट कर दिया जाये तो फसलों में कातरे की लट का प्रकोप कम हो जाता हैं। इसकी रोकथाम प्रकाश प्रपंच के उपयोग से सम्भव है। इसके लिए पतंगों को प्रकाश की ओर आकर्षित करने हेतु खेत की मेडों पर, चरागाहों व खेतों में गैस लालटेन या बिजली का बल्ब जलायें तथा इनके नीचे मिटटी के तेल मिले पानी का बर्तन रखें ताकि रोशनी पर आकर्षित पतंगे पानी में गिर कर नष्ट हो जायें तथा जगह-जगह पर घास कचरा एकत्रित कर जलाने से पतंगें रोशनी पर आकर्षित होकर जल कर नष्ट हो जायें। कातरे की छोटी अवस्था में खेतों के पास उगे जंगली पौधें एवं जहां फसल उगी हुई हो वहां पर अण्डों से निकली लटों एवं इनकी प्रथम व द्वितीय अवस्था पर क्यूनाॅलफाॅस 1.5 प्रतिशत चूर्ण का 25 किलो प्रति हैक्टेयर की दर से भुरकाव करें। बंजर जमीन या चारागाह में उगे जंगली पौधों से खेतों को फसलों पर लट के आगमन को राकेने के लिये खेत के चारों तरफ खाइयां खोदे और खाइयों में क्यूनाॅलफाॅस 1.5 प्रतिश या मिथाइल पैराथियाॅन 2 प्रतिशत चूर्ण भुरक देवें ताकि खाई में आने वाली लटें नष्ट हो जावें।
कातरे की बड़ी अवस्था :रसायनो से नष्ट करने के लिए क्यूनाॅलफाॅस 1.5 प्रतिशत चूर्ण 25 किलो प्रति हैक्टेयर का भुरकाव करें। जहां पानी उपलब्ध हो वहां डाई क्लोरावाॅस 300 मिलीलीटर या मिथाइल पैराथियाॅन 50 ईसी 750 मिलीलीटर या क्यूनाॅलफाॅस 25 ईसी 625 मिली लीटर या क्लोरोपायरीफाॅस 20 ई सी एक लीटर प्रति हैक्टेयर का छिडकाव करें।
सफेद लट : खरीफ की अधिकांश फसलों में सफेद लट का प्रकोप होता हैं। इसकी प्रौढ अवस्था (बीटल) व लट दोनों नुकसान करती हैं।जहां सफेद लट् का विशेष प्रकोप हो वहां कारबोफ्यूराॅन 3 प्रतिशत कण या सेवीडाॅल 4 प्रतिशत कण 25 किलों प्रतिहैक्टर की दर से बुवाई से पूर्व भूमि में मिला देवे तथा जिन क्षैत्रों में दीमक का प्रकोप हैं वहां दीमक की रोकथाम हेतु क्यूनालफाॅस 1.5 प्रतिशत चूर्ण 25 किलों प्रतिहैक्टर की दर से भूमि में बुवाई से पूर्व मिलाना चाहिए।
प्रौढ कीट (भृंग नियंत्रण) : मानसून या इससे पूर्व की भारी वर्षा एवं कुछ क्षेत्रों के खेतों में पानी लगने पर जमीन से भृंगों का निकलना शुरू हो जाता है भृंग रात के समय जमीन से निकलकर परपोषी वृक्षों पर बैठते हैं। परपोषी वृक्ष अधिकतर खेजड़ा, बेर, नीम, अमरूद एवं आम आदि हैं। भृंगों का निकलना 4 से 5 दिन तक चालू रहता है सफेद लट से प्रभावित क्षेत्रों से परपोषी वृक्षों पर भृंग रात में विश्राम करते हैं। ऐसे वृक्षों को रात में छांट लेवें और दूसरे दिन मोनोक्रोटोफाॅस 36 डब्ल्यू.एस.सी. 25 मिली लीटर या क्यूनालफाॅस 25 इ.सी. या कार्बोरिल 50 घुलनशील चूर्ण 72 ग्राम 15 लीटर पानी में घोलकर इन्हीं वृक्षों पर छिडकाव करें। भृंग निकलने के तीन दिन बाद अंडे देना शुरू होता है इसलिये तुरन्त छिड़काव लाभदायक हैं।
फली छेदक : क्यूनालफाॅस 25 ईसी एक लीटर प्रति हैक्टेयर की दर से फूल व फली आते ही छिडके एवं आवश्यकता हो तो हर 15 दिन के अन्तराल पर छिडकाव दोहराएं।
रस चूसक कीडे हरा तेला व सफेद मक्खी : इनकी रोकथाम के लिए मैलाथियान 50 ई.सी या डायमिथोएट 30 ईसी एक लीटर प्रति हैक्टेयर की दर से प्रयोग करें। आवश्यकता हो तो हर 15 दिन के अन्तर पर छिडकाव दोहराए। रस चूसक कीडे का प्रकोप होते ही इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एसएल 150 मिलीलीटर प्रति हैक्टेयर की दर से छिडकाव करें तथा आवश्यकता होने पर दूसरा छिडकाव 15 दिन के अन्तराल पर करें।
चित्ती जीवाणु रोग : मोठ में यह रोग जेनथोमोनास जीवाणु द्वारा फैलता हैं। रोग में छोटे गहरे भूरे रंग के धब्बे पत्तों पर तथा प्रकोप बढने पर फलियों और तने पर भी दिखाई देते हैं। इससे पौधों मुरझा जाते हैं। रोग दिखाई देते ही एग्रीमाईसीन 200 ग्राम या दो किलो ताम्रयुक्त फफूंदनाशी का प्रति हैक्टेयर की दर से छिडकाव करें आवश्यकतानुसार छिडकाव दोहरावें। मोठ के बीज को 100 पीपी एम स्ट्रप्टोसाइक्लिन के घोल में एक घण्टे भिगोकर सूखा लेंवे और तत्पश्चात केप्टान से उपचारित करें।
पीतशिरा मोजेक (विषाणु) रोग : रोग की रोकथाम के लिये रोग का प्रकोप दिखाई देते ही डायमिथोएट 30 ईसी एक लीटर का प्रति हैक्टेयर की दर से छिडके। आवश्यकता हो तो 15 दिन के अन्तर पर फिर छिडकाव करें।
छाछया रोग : पत्तियों की उपरी सतह पर शुरू में सफेद गोलाकार पाउडर जैसे धब्बे हो जाते हैं तथा बाद में पाउडर तने तथा पत्तियां पर फैल जाता हैं। पत्तियां छोटी रहकर पीली पड जाती हैं। रोकथाम हेतु प्रति हैक्टेयर ढाई किलो घुलनशील गन्धक अथवा कैराथेन एक लीटर का पहला छिडकाव रोग के लक्षण दिखाई देते ही एक दूसरा छिडकाव 10 दिन के अन्तर पर करें अथवा 25 किलो गन्धक चूर्ण भुरके।
सरकोस्पोरा पत्ती धब्बा : पत्तियों पर कोणदार भूरे लाल रंग के धब्बे बनते हैं जिनके बीच का भाग स्लेटी या हल्के हरे रंग का होता हैं। ऐसे धब्बे डंटलों तथा फलियों पर भी बनते हैं। रोगी पौधों की नीचे की पत्तियां पीली पडकर सूखने लगती हैं। ऐसे पौधों का आधा भाग व जडें भी सूख जाती हैं। रोग की रोकथाम के लिए कार्बेण्डेजिम 50 प्रतिशत दो ग्राम प्रति लीटर पानी के घोल को छिडके। बचाव के लिये 3 ग्राम कैप्टान 75 एस डी या 2 ग्राम कार्बेण्डेजिम प्रति किलो बीज की दर से बीज को उपचारित कर बोएं।
स्टेम ब्लाइट (तना झुलसा) : बीजोपचार के बाद जहां इस बीमारी का प्रकोप दिखाई देवे वहां खडी फसल में बुवाई के 30 दिन बाद फसल में 2 किलो मैन्कोजेब का प्रति हैक्टेयर की दर से छिडकाव करें।
पीलिया रोग : जैसे ही फसल में पीलापन दिखाई देवे 0.1 प्रतिशत गन्धक के तेजाब का या 0.5 प्रतिशत फैरस सल्फेट का छिडकाव किया जावे। यदि आवश्यकता हो तो यह छिडकाव दोहरायें।
मोठ में सूखा जड़ गलन : रोगी पौधो की नीचे की पत्तियां पीली पडकर सूखने लगती हैं। ऐसे पौधों का आधार भाग व जडें भी सूख जाती है अन्त में पौधा मुरझा जाता हैं। रोग से बचाव के लिये 3 ग्राम कैप्टाॅन या दो ग्राम कार्बेण्डेजिम या 5 ग्राम ट्राईकोडर्मा विरडी प्रति किलो बीज की दर बीज को उपचारित करें लेकिन ट्राईकोडर्मा से बीजोपचार करने के साथ कूडों में 1.25 टन गोबर की खाद प्रति हैक्टर अवश्य डालें।
फसल की कटाई और पैदावार : फलियों के झडकर गिरने से होने वाले हानि को रोकने के लिये फलियों की पूरी तरह पकने के बाद एवं झडने से पहले काट लेवें। इसके बाद एक सप्ताह या दस दिन तक सुखाये और फिर गहाई कर दाना निकाल लीजिये।
लोकेश कुमार जैन
सहायक आचार्य (शस्य विज्ञान)
कृषि महाविद्यालय, सुमेरपुर (पाली) राजस्थान