अनार की खेती
अनार मुख्य रूप से गृहवाटिका व अलंकृत पौधे के रूप में उगाया जाता है परन्तु इसके व्यावसायिक उत्पादन की भारी संभावनायें हैं। इसकी खेती कम पानी व विपरीत जलवायुवीय परिस्थिति में भी आसानी से की जा सकती है। इसके साथ-साथ अनार को बारानी और लवणीय मृदा में भी उगा सकते हैं। अनार के फलों का शर्बत बहुत स्फूर्तिदायक तथा स्वास्थ्यप्रद होता है।
जलवायु: अनार उपोष्ण जलवायु का पौधा है। इसकी खेती के लिए गर्म एवम् शुष्क वातावरण अधिक उपयुक्त रहता है। इसके पौधे अधिक तापमान एवम् सूखा सहने में सक्षम होते हैं। सर्दी के मौसम में पौधे पत्तियाँ गिरा कर सुषुप्तावस्था में आ जाते हैं जिससे काफी हद तक पाला के प्रति सहनशील हो जाते हैं। फल पकते समय गर्म तथा शुष्क वातावरण होने से फल मीठे तथा अच्छे गुणों वाले होते हैं। अधिक आर्द्रता युक्त मौसम में फलों का स्वाद पनीला हो जाता है।
मिट्टी: अनार की बागवानी विभिन्न प्रकार की भूमियों में की जा सकती है। अच्छी जलनिकास युक्त उपजाऊ भारी दोमट भूमि में इसकी काश्त बहुत अच्छी होती है। क्षारीय, पथरीली एवम् समस्याग्रस्त मृदाओं में भी उच्च प्रबन्धन के साथ अनार की खेती की जा सकती है।
उन्नत किस्में: धोलका, गणेश, जालौर सिडलैस, जोधपुर रेड, मसकट, कंधारी, पेपर शेल, सिन्दूरी, अरक्ता, मृदुला
पौध रोपण : अनार के पौधों का फरवरी-मार्च एवम् जून-जुलाई में रोपण किया जाता है। पौधे लगाने के एक माह पूर्व 5 x 5 मीटर की दूरी पर रेखांकन करके चिन्हित स्थानों पर 60 x 60 x 60 से.मी. आकार के गड्ढे बनाकर वर्षा शुरू होने से पूर्व प्रत्येक गड्ढे में 10 किलोग्राम सड़ी हुई गोबर की खाद, 250 ग्राम एन.पी.के. (12 : 32 : 16), 2 किलोग्राम वर्मीकम्पोस्ट, 2 किलोग्राम नीम की खल व 50 ग्राम मिथाइल पैराथियाॅन पाऊडर मिलाकर गड्ढों को भूमि से 10-12 से.मी. ऊँचाई तक भर कर अच्छी सिंचाई कर देनी चाहिए।
सिंचाई : अनार के पौधों में सूखा सहन करने की क्षमता होती है परन्तु अच्छा उत्पादन प्राप्त करने के लिए फसल काल में 10-15 दिन के अन्तर पर सिंचाई करनी चाहिए। अधिक सिंचाई से बचे। प्रति पौध 2 ड्रिपर चारों दिशाओं में उपयोग करें। जल संरक्षण हेतु अनार के तने के आस-पास 150 से.मी. व्यास में जैविक मल्चिंग करना लाभदायक रहता है। उर्वरकों का भूमि में उपयोग करने के तुरन्त बाद सिंचाई अवश्य करें। अनियमित सिंचाई से फल फटन व फल झड़ने की समस्याएँ पैदा हो जाती हैं।
अन्तः शस्यन: अनार के बगीचे में प्रारम्भिक 2-3 वर्षों तक दलहनी फसलें जैसे मटर, लोबिया, चना, मूँग, उड्द तथा मूँगफली आदि उगाई जा सकती है। पौधों के पूर्ण विकसित होने के बाद अनार में अन्तः शस्यन नहीं करना चाहिए।
कटाई छटाई एवं बहार नियंत्रण
- यदि जीवाणु अंगमारी रोग अधिक हो तो फल तुड़ाई के तुरन्त बाद प्रभावी शाखाओं को सिकेटियर से काटकर जला देवें।
- ध्यान रहे कि छटाई प्रभावी भाग के 2 इंच नीचे से करें।
- छटाई के उपरान्त काटे गए भाग पर 10 प्रतिशत बोर्डेक्स पेस्ट का लेप करें तथा बोर्डेक्स मिक्सचर 1 प्रतिशत का छिड़काव करें।
- आराम अवधि के उपरान्त इथरल 39 प्रतिशत एससी 2 से 2.5 मिलीलीटर प्रति लीटर भूमि नमी के आधार पर छिड़काव कर पौधों को पत्ती रहित (डिफोलिएट) करें।
- यदि डिफोलिएशन के दौरान कीटों का प्रभाव दिखे तो वैज्ञानिक सलाहनुसार कीटनाशी मिलाकर छिड़काव करें।
- बगीचे को साफ सुथरा रखने के लिए गिरी हुई पत्तियाँ व टहनियों को इकट्ठा कर जरूर जलावें।
सन्तुलित उत्पादन व गुणवत्तायुक्त फल प्राप्त करने के लिए बहार नियत्रंण आवश्यक होता है। उत्तरी भारत में फूल मार्च-अप्रेल में आते हैं तथा फल जुलाई-अगस्त में पककर तैयार हो जाते हैं। पश्चिमी एवं दक्षिणी भारत में अनार का पौधा सदाबहारी होता हैं। जिन क्षेत्रों में सिंचाई की सुविधा नहीं होती है वहाँ मृग बहार के फल लिये जाते हैं तथा जिन क्षेत्रों में सिंचाई की सुविधा होती हैं वहाँ फल सामान्यतः अम्बे बहार के लिये जाते हैं।
पोषण प्रबंधन :
- बहार उपचार के बाद पहली सिंचाई के साथ नत्रजन व पोटाश की एक तिहाई मात्रा तथा फास्फोरस की पूरी मात्रा देवें।
- बची हुई नत्रजन व पोटाश की मात्रा दो बार में आगामी 3-4 सप्ताह अंतराल पर देवें।
- सुक्ष्म पोषक तत्व (जिंक, आयरन, मैंगनींज, बोरोन 25 ग्राम/पौधा या सिफारिश अनुसार) गोबर की खाद के साथ देवें।
- जब फूल शुरू हो जावें तो एनपीके 12 : 61 : 00 की 8 किलोग्राम मात्रा प्रति हेक्टेयर प्रति सिंचाई देवें।
- जब शत प्रतिशत फल ग्रहण हो जावे तो एनपीके 0 : 52 : 34 की 2.5 किलोग्राम मात्रा प्रति हेक्टेयर प्रति सिंचाई एक दिन अंतराल से देवें।
- फल तुड़ाई से एक माह पूर्व केल्शियम नाईट्रेट 12.50 किलोग्राम मात्रा प्रति हेक्टेयर प्रति सिंचाई 15 दिन के अंतराल पर देवें।
तुड़ाई एवम् उपज : पौधे लगाने के 2-3 वर्ष पश्चात् फलना प्रारम्भ कर देते हैं, परन्तु इससे पौधों के स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। अतः 5 वर्ष की आयु के पश्चात् ही भरपूर उत्पादन लेना चाहिए। 4-5 वर्ष के पौधे पर लगभग 20-25 फल प्रति वृक्ष प्राप्त होते हैं। पूर्णरूप से विकसित पौधे से लगभग 100-150 फल प्रति वर्ष प्राप्त किए जा सकते हैं।
कीट प्रबन्ध :
(अ) अनार की तितली : नियत्रंण
1. प्रभावित फलों को नष्ट कर देना चाहिए।
2. फोस्फोमीडॉन 0.03 प्रतिशत का घोल 10-15 दिन के अन्तर पर तीन बार छिड़काव करना चाहिए।
3. फलों को कपडे़ की थैलियों से ढककर रखना चाहिए।
(ब) तना छेदक एवं छाल भक्षक कीट : नियंत्रण
1. अधिक सघन उद्यान से अतिरिक्त पौधों को हटा देना चाहिए।
2. प्रभावित क्षेत्र साफ करते रहना चाहिए तथा छोटे छिद्रों में केरोसिन या पेट्रोल डालकर उन्हें रूई से बन्द कर देना चाहिए।
रोग प्रबन्ध :
(अ) पर्ण एवं फल चित्ती : नियत्रंण के लिए डाईथेन एम-45 या केप्टान 500 ग्राम 200 लीटर पानी में घोलकर 15 दिन के अन्तर से 3-4 बार छिड़कना चाहिए।
(ब) फल सड़न: नियंत्रण:
1. प्रभावित फलों, फूलों व शाखाओं को काटकर जला देना चाहिए।
2. डायथेन जेड़-78, 0.2 प्रतिशत का घोल 15 दिन के अन्तर पर 2-3 बार छिड़कना चाहिए।
(स) फल फटन: नियत्रंण:
1. बौरेक्स 0.1 प्रतिशत का छिड़काव करना चाहिए।
2. नियमित रूप से सिंचाई करनी चाहिए।
3. फल फटन रोधी किस्में बेदाना, जालोर सिडलेस एवं सिन्दूरी उगाना चाहिए।
4. जून माह में जिब्रलिक अम्ल 250 पी.पी.एम. (0.25ग्राम प्रति लीटर पानी में) का छिड़काव करने से काफी हद तक इस समस्या पर काबू पाया जा सकता है।
डॉ. रामराज मीना, विषय विशेषज्ञ (उद्यान), डॉ. किशन जीनगर, कार्यक्रम समन्वयक, डॉ. भरतलाल मीना, विषय विशेषज्ञ (कीट विज्ञान), कृषि विज्ञान केन्द्र, झालावाड़